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Hindi Short Stories With English Translation – जानिए अंग्रेजी अनुवाद में बहुत ही मजेदार कहानियां

Hindi Short Stories With English Translation – जानिए अंग्रेजी अनुवाद में बहुत ही मजेदार कहानियां

Short Stories In Hindi By Famous Authors: आज सबसे ज्यदा जो पसंद किया जाता हैं. वह हैं मशहूर लेखकों की मजेदार कहनियां. जी हां, आज के समय में सबसे ज्यादा कहनियां सुनने में दिलचस्पी रखते हैं. क्योंकि हर कोई कहनियां पढ़ने या सुनने में बहुत पसंद करते हैं.

इसके साथ ही बता दे की Short Stories In Hindi By Famous Authors कहनियां खासकर आपके मनोरंजन के लिए ही तैयार किया गया हैं. Short Stories In Hindi By Famous Authors कहनियो से कुछ अच्छा सीख सके. हमारा एक मात्र मकसत यह हैं की आपको रोज कुछ नया सीखने को मिले और इससे हमे भी आनंद मिलती हैं.

तो चलिए बिना देर किए इन कहानियों में आगे बढ़ते हैं और जानते हैं कि ये कहानियां (100+ Hindi Moral Stories) हमें क्या सिखाती हैं।

Table of Contents

    Short Stories In Hindi By Famous Authors

    हमने निचे करीब 6 बहुत ही मशहूर लेखकों की कहानियां (20+ Hindi Pustak Samiksha Short Stories) दीए हैं जिसे पढ़कर आपको बहुत कुछ नया सीखने को मिलेगा.

    1# तोता की कहानी – By Rabindranath Tagore

    एक था तोता । वह बड़ा मूर्ख था। गाता तो था, पर शास्त्र नही पढ़ता था । उछलता था, फुदकता था, उड़ता था, पर यह नहीं जानता था कि क़ायदा-क़ानून किसे कहते हैं । राजा बोले, ”ऐसा तोता किस काम का? इससे लाभ तो कोई नहीं, हानि जरूर है । जंगल के फल खा जाता है, जिससे मण्डी के फल-ब़ाजार में कम पड़ जाता है ।”

    मंत्री को बुलाकर कहा, ”इस तोते को शिक्षा दो!” तोते को शिक्षा देने का काम राजा के भानजे को मिला । पण्डितों की बैठक हुई । विषय था, ”उक्त जीव की अविद्या का कारण क्या है?” बड़ा गहरा विचार हुआ ।सिद्धान्त ठहरा : तोता अपना घोंसला साधारण खर-पात से बनाता है । ऐसे आवास में विद्या नहीं आती । इसलिए सबसे पहले तो यह आवश्यक है कि इसके लिए कोई बढ़िया-सा पिंजरा बना दिया जाय ।

    राज-पण्डितों को दक्षिणा मिली और वे प्रसन्न होकर अपने-अपने घर गये । सुनार बुलाया गया । वह सोने का पिंजरा तैयार करने में जुट पड़ा । पिंजरा ऐसा अनोखा बना कि उसे देखने के लिए देश-विदेश के लोग टूट पड़े । कोई कहता, ”शिक्षा की तो इति हो गयी ।” कोई कहता, ”शिक्षा न भी हो तो क्या, पिंजरा तो बना । इस तोते का भी क्या नसीब है!”

    सुनार को थैलियाँ भर-भरकर इनाम मिला । वह उसी घड़ी अपने घर की ओर रवाना हो गया । पण्डितजी तोते को विद्या पढ़ाने बैठे । नस लेकर बोले, ”यह काम थोड़ी पोथियों का नहीं है ।” राजा के भानजे ने सुना । उन्होंने उसी समय पोथी लिखनेवालों को बुलवाया । पोथियों की नकल होने लगी । नक़लों के और नक़लों की पहाड़ लग गये । जिसने, भी देखा, उसने यही कहा कि, ”शाबाश! इतनी विद्या के धरने को जगह भी नहीं रहेगी!”

    नक़लनवीसों को लद्दू बैलों पर लाद-लादकर इनाम दिये गए । वे अपने-अपने घर की ओर दौड़ पड़े । उनकी दुनिया में तंगी का नाम-निशान भी बाकी न रहा । दामी पिंजरे की देख-रेख में राजा के भानजे बहुत व्यस्त रहने लगे । इतने व्यस्त कि व्यस्तता की कोई सीमा न रही । मरम्मत के काम भी लगे ही रहते । फिर झाडू-पोंछ और पालिश की धूम भी मची ही रहती थी । जो ही देखता, यही कहता कि ”उन्नति हो रही है।”

    इन कामों पर अनेक-अनेक लोग लगाये गये और उनके कामों की देख-रेख करने पर और भी अनेक-अनेक लोग लगे । सब महीने-महीने मोटे-मोटे वेतन ले-लेकर बड़े-बड़े सन्दूक भरने लगे । वे और उनके चचेरे-ममेरे-मौसेरे भाई-बंद बड़े प्रसन्न हुए और बड़े-बड़े कोठों-बालाखानों में मोटे-मोटे गद्दे बिछाकर बैठ गये । संसार में और अभाव तो अनेक हैं, पर निन्दकों की कोई कमी नहीं है। एक ढूँढो हजार मिलते हैं । वे बोले, ”पिंजरे की तो उन्नति हो रही है, पर तोते की खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं है!

    बात राजा के कानों में पड़ी । उन्होंने भानजे को बुलाया और कहा, ”क्यों भानजे साहब, यह कैसी बात सुनाई पड़ रही है? ” भानजे ने कहा, ”महाराज, अगर सच-सच बात सुनना चाहते हों तो सुनारों को बुलाइये, पण्डितों को बुलाइये, नक़लनवीसों को बुलाइये, मरम्मत करनेवालों को और मरम्मत की देखभाल करने वालों को बुलाइये । निन्दकों को हलवे-मॉड़े मे हिस्सा नहीं मिलता, इसीलिए वे ऐसी ओछी बात करते हैं ।”

    जवाब सुनकर राजा नें पूरे मामले को भली-भाँति और साफ-साफ तौर से समझ लिया । भानजे के गले में तत्काल सोने के हार पहनाये गये । राजा का मन हुआ कि एक बार चलकर अपनी आँखों से यह देखें कि शिक्षा कैसे धूमधड़ाके से और कैसी बगटुट तेज़ी के साथ चल रही है । सो, एक दिन वह अपने मुसाहबों, मुँहलगों, मित्रों और मन्त्रियों के साथ आप ही शिक्षा-शाला में आ धमके ।

    उनके पहुँचते ही ड्योढ़ी के पास शंख, घड़ियाल, ढोल, तासे, खुरदक, नगाड़े, तुरहियाँ, भेरियाँ, दमामें, काँसे, बाँसुरिया, झाल, करताल, मृदंग, जगझम्प आदि-आदि आप ही आप बज उठे । पण्डित गले फाड़-फाड़कर और बूटियां फड़का-फड़काकर मन्त्र-पाठ करने लगे । मिस्त्री, मजदूर, सुनार, नक़लनवीस, देख-भाल करने वाले और उन सभी के ममेरे, फुफेरे, चचेरे, मौसेरे भाई जय-जयकार करने लगे ।

    भानजा बोला, ”महाराज, देख रहे हैं न?” महाराज ने कहा, ”आश्चर्य! शब्द तो कोई कम नहीं हो रहा!भानजा बोला, ”शब्द ही क्यों, इसके पीछे अर्थ भी कोई कम नहीं!”राजा प्रसन्न होकर लौट पड़े । ड्योड़ी को पार करके हाथी पर सवार होने ही वाले थे कि पासके झुरमुट में छिपा बैठा निन्दक बोल उठा, ”महाराज आपने तोते को देखा भी है?”

    राजा चौंके। बोले, ”अरे हाँ! यह तो मैं बिलकुल भूल ही गया था! तोते को तो देखा ही नहीं! ”लौटकर पण्डित से बोले, ”मुझे यह देखना है कि तोते को तुम पढ़ाते किस ढंग से हो ।”पढ़ाने का ढंग उन्हें दिखाया गया । देखकर उनकी खुशी का ठिकाना न रहा । पढ़ाने का ढंग तोते की तुलना में इतना बड़ा था कि तोता दिखाई ही नहीं पड़ता था । राजा ने सोचा : अब तोते को देखने की जरूरत ही क्या है?

    उसे देखे बिना भी काम चल सकता है! राजा ने इतना तो अच्छी तरह समझ लिया कि बंदोबस्त में कहीं कोई भूल-चूक नहीं है । पिंजरे में दाना-पानी तो नही था, थी सिर्फ शिक्षा । यानी ढेर की ढेर पोथियों के ढेर के ढेर पन्ने फाड़-फाड़कर कलम की नोंक से तोते के मुँह में घुसेड़े जाते थे । गाना तो बन्द हो ही गया था, चीरने-चिल्लाने के लिए भी कोई गुंजायश नही छोड़ी गयी थी । तोते का मुँह ठसाठस भरकर बिलकुल बन्द हो गया था ।

    देखनेवाले के रोंगटे खड़े हो जाते । अब दुबारा जब राजा हाथी पर चढ़ने लगे तो उन्होंने कान-उमेठू सरदार को ताकीद कर दी कि ”निन्दक के कान अच्छी तरह उमेठ देना!” तोता दिन पर दिन भद्र रीति के अनुसार अधमरा होता गया। अभिभावकों ने समझा कि प्रगति काफी आशाजनक हो रही है । फिर भी पक्षी-स्वभाव के एक स्वाभाविक दोष से तोते का पिंड अब भी छूट नहीं पाया था । सुबह होते ही वह उजाले की ओर टुकुर-टुकुर निहारने लगता था और बड़ी ही अन्याय-भरी रीति से अपने डैने फड़फड़ाने लगता था ।

    इतना ही नहीं, किसी-किसी दिन तो ऐसा भी देखा गया कि वह अपनी रोगी चोंचों से पिंजरे की सलाखें काटने में जुटा हुआ है । कोतवाल गरजा, ”यह कैसी बेअदबी है !”फौरन लुहार हाजिर हुआ । आग, भाथी और हथौड़ा लेकर । वह धम्माधम्म लोहा-पिटाई हुई कि कुछ न पूछिये! लोहे की सांकल तैयार की गई और तोते के डैने भी काट दिये गए । राजा के सम्बन्धियों ने हाँड़ी-जैसे मुँह लटका कर और सिर हिलाकर कहा, ”इस राज्य के पक्षी सिर्फ बेवकूफ ही नही, नमक- हराम भी हैं ।”

    और तब, पण्डितों ने एक हाथ में कलम और दूसरे हाथ मे बरछा ले-लेकर वह कांड रचाया, जिसे शिक्षा कहते हैं । लुहार की लुहसार बेहद फैल गयी और लुहारिन के अंगों पर सोने के गहनें शोभने लगे और कोतवाल की चतुराई देखकर राजा ने उसे सिरोपा अता किया । तोता मर गया । कब मरा, इसका निश्चय कोई भी नहीं कर सकता ।

    कमबख्त निन्दक ने अफवाह फैलायी कि ”तोता मर गया! ”राजा ने भानजे को बुलवाया और कहा, ”भानजे साहब यह कैसी बात सुनी जा रही है? ” भानजे ने कहा, ”महाराज, तोते की शिक्षा पूरी हो गई है!” राजा ने पूछा, ”अब भी वह उछलता-फुदकता है? ” भानजा बोला, अजी, राम कहिये! ” ”अब भी उड़ता है?” ”ना:, क़तई नहीं!” ”अब भी गाता है?””नहीं तो! ””दाना न मिलने पर अब भी चिल्लाता है?” “ना!”

    राजा ने कहा, ”एक बार तोते को लाना तो सही, देखूंगा जरा!तोता लाया गया । साथ में कोतवाल आये, प्यादे आये, घुड़सवार आये! राजा ने तोते को चुटकी से दबाया । तोते ने न हाँ की, न हूँ की । हाँ, उसके पेट में पोथियों के सूखे पत्ते खड़खड़ाने जरूर लगे । बाहर नव-वसन्त की दक्षिणी बयार में नव-पल्लवों ने अपने निश्वासों से मुकुलित वन के आकाश को आकुल कर दिया ।

    2# बंद दरवाजा (कथा-कहानी) – By Munshi Premchand

    सूरज क्षितिज की गोद से निकला, बच्चा पालने से। वही स्निग्धता, वही लाली, वही खुमार, वही रोशनी। मैं बरामदे में बैठा था। बच्चे ने दरवाजे से झांका। मैंने मैं मुस्कुराकर पुकारा। वह मेरी गोद में आकर बैठ गया।

    उसकी शरारतें शुरू हो गईं। कभी कलम पर हाथ बढ़ाया, कभी कागज पर। मैंने मैं गोद से उतार दिया। वह मेज का पाया पकड़े खड़ा रहा। घर में न गया। दरवाजा खुला हुआ था। एक चिड़िया फुदकती हुई आई और सामने के सहन में बैठ गई। बच्चे के लिए मनोरंजन का यह नया सामान था।

    वह उसकी तरफ लपका। चिड़िया जरा भी न डरी। बच्चे ने समझा अब यह परदार खिलौना हाथ आ गया। बैठकर दोनों हाथों से चिड़िया को बुलाने लगा। चिड़िया उड़ गई, निराश बच्चा रोने लगा। मगर अंदर के दरवाजे की तरफ ताका भी नहीं।हीं दरवाजा खुला हुआ था।

    गरम हलवे की मीठी पुकार आई। बच्चे का चेहरा चाव से खिल उठा। खोंचेखों चेवाला सामने से गुजरा। बच्चे ने मेरी तरफ याचना की आँखों से देखा। ज्यों-ज्योंज्यों खोंचेखों चेवाला दूर होता गया, याचना की आँखें रोष में परिवर्तित होती गईं।

    यहाँ तक कि जब मोड़ आ गया और खोंचेखों चेवाला आँख से ओझल हो गया तो रोष ने पुरजोर फरियाद की सूरत अख्तियार की। मगर मैं बाजार की चीजें बच्चों को नहीं खाने देता। बच्चे की फरियाद ने मुझ पर कोई असर न किया। मैं आगे की बात सोचकर और भी तन गया। कह नहीं सकता बच्चे ने अपनी माँ की अदालत में अपील

    करने की जरूरत समझी या नहीं।हीं आमतौर पर बच्चे ऐसे हालातों में माँ से अपील करते हैं। शायद उसने कुछ देर के लिए अपील मुल्तवी कर दी हो। उसने दरवाजे की तरफ रुख न किया। दरवाजा खुला हुआ था।

    मैंने मैं आँसू पोंछपों ने के ख्याल से अपना फाउंटेनपेन उसके हाथ में रख दिया। बच्चे को जैसे सारे जमाने की दौलत मिल गई। उसकी सारी इंद्रियाँ इस नई समस्या को हल करने में लग गईं। एकाएक दरवाजा हवा से खुद-ब-खुद

    बंद हो गया। पट की आवाज बच्चे के कानों में आई। उसने दरवाजे की तरफ देखा। उसकी वह व्यस्तता तत्क्षण लुप्त हो गई। उसने फाउंटेनपेन को फेंक दिया और रोता हुआ दरवाजे की तरफ चला क्योंकिक्यों दरवाजा बंद हो गया था।

    3# बीवी छुट्टी पर – By R. K. Narayan

    कन्नन अपनी झोंपड़ी के दरवाजे पर बैठा गाँव के लोगों को आते-जाते देख रहा था। तेली सामी अपने बैल को हाँकता सड़क से गुजरा। उसे देखकर बोला, ‘आज आराम करने का दिन है ? तो शाम को मंटपम में आ जाना।” कई और लोग गुजरे लेकिन कन्नन ने किसी की ओर ध्यान नहीं दिया। तेली की बात सुनकर वह विचारों में खो-सा गया। मंटपम टैंक बंद पर पुराने जमाने की खंभेदार जगह थी, जो अब जगह-जगह से टूट रही थी।

    अब कन्नन और उसके साथियों के लिए यह क्लब की तरह बन गयी थी। कभी-कभी शाम को वे यहाँ इकट्ठे होते और डटकर चौपड़ खेलते। कन्नन को न सिर्फ यह खेल पसंद था बल्कि इसकी सुगंध और टूटी हुई मीनारों के बीच से दिखायी देती पहाड़ियाँ भी बहुत अच्छी लगती थीं। मंटपम के बारे में सोचते हुए वह कुछ गुनगुनाने भी लगा।

    वह जानता था कि उसे इस तरह बैठे देखकर लोग उसे आलसी समझते होंगे। लेकिन उसे परवाह नहीं थी। वह काम करने नहीं जायेगा। उसे घर से बाहर भेजने वाला अब नहीं था-उसकी बीवी अभी नहीं लौटी थी। उसने कुछ दिन पहले मन में चुपचाप खुश होते हुए उसे मायके जाने के लिए बैलगाड़ी पर बिठाया था। उसे उम्मीद थी कि उसके माँ-बाप उसे दस-पंद्रह दिन और रुकने को कहेंगे, हालांकि अपने छोटे बेटे की अनुपस्थिति उसे अच्छी नहीं लगती थी।

    लेकिन कन्नन इसे बीवी के न होने की खुशी की कीमत के रूप में ले रहा था। उसने सोचा, ‘अगर वह यहाँ होती तो क्या मुझे इस तरफ आराम करने देती?’ उसे हर रोज एक रुपया कमाने के लिए नारियल के पेड़ों पर चढ़ना होता, उनके ऊपर लगे कीड़े-मकोड़े साफ करने पड़ते, नारियल तोड़-तोड़कर नीचे गिराने पड़ते और कंजूस ठेकेदारों से पैसों के लिए लड़ना-झगड़ना पड़ता।

    अब वह बीवी के न होने का पूरा लाभ उठाने के लिए दिन भर घर पर पड़ा आराम करता रहता था। लेकिन अब यह हालत हो गयी थी कि उसके पास एक पैसा भी नहीं बचा था और पैसे के लिए आज ही उसे पेड़ों पर चढ़ना जरूरी हो गया था। उसने अपने हाथ और पैर फैलाये और सोचने लगा कि अब उसे पेड़ों पर चढ़ना कैसा लगेगा! वास्तव में बड़े घर के पीछे लगे दसों पेड़ अब देखभाल की माँग कर रहे थे और जल्द-से-जल्द यह काम करना चाहिए था।

    लेकिन यह संभव नहीं था। उसके पैर और हाथ कड़े पड़ गये थे और मंटपम जाने के लायक ही रह गये थे। लेकिन वहाँ खाली हाथ जाना भी सही नहीं था। अगर उसके पास एक चवन्नी भी होती तो वह शाम को उससे एक रुपया बनाकर ला सकता था।

    लेकिन यह औरत. उसे अपनी बीवी पर गुस्सा आने लगा, जो यह नहीं समझती थी कि अपनी मेहनत की कमाई में से वह एक आना भी रखने का अधिकारी है। उसके पास एक चवन्नी भी न थी, जिसे वह अपनी कह सकता। वह सालों से कमाई के लिए खटता रहा था, जब से.खैर, उसने इसके बारे में सोचना बंद कर दिया, क्योंकि इसमें उसे गिनती में उलझना पड़ता था और चौपड़ की गिनतियों के अलावा उसे कोई गिनती समझ में नहीं आती थी।

    तभी उसे कुछ सूझा और वह उठकर घर में चला गया। कोने में एक बड़ा टिन का बक्स रखा था जिसे कई साल पहने उसने काले रँग से रँगा था-यही घर की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु थी। बक्स उसकी बीवी का था। वह उसके सामने बैठ गया और उसे खोलने लगा। उसका ताला बहुत मजबूत था, सख्त लोहे का बना, जिसके किनारे भी बहुत तीखे थे। उसने ताला पकड़कर अपनी तरफ खींचा, और ताजुब है कि वह अपने आप खुल गया। ‘ईश्वर मुझ पर बहुत मेहरबान है, ‘ यह सोचकर उसने बक्स का ढक्कन उठाया।

    इसमें बीवी की कीमती चीजें रखी थीं: कुछ जैकेट और दो-तीन साड़ियाँ जिनमें से एक उसने उसे शादी के समय खुद भेंट में दी थी। उसे ताज्जुब हुआ कि इसे उसने अभी तक सँभालकर रखा है। हालाँकि यह.यह. गिनती की समस्या फिर सामने आ जाने से वह यहीं रुक गया। ‘उसने इसे इसलिए इतना सँभालकर रखा है क्योंकि वह अच्छी चीज के इस्तेमाल में बहुत कंजूस है।’ यह सोचकर वह हँसा।

    फिर कपड़े उसने नीचे रख दिये और लकड़ी के उस डिब्बे की तलाश करने लगा जिसमें वह पैसा रखती थी। डिब्बा बिलकुल खाली था सिर्फ एक पैसे के, जो भाग्य के लिए रखा गया था। ‘कहाँ गया उसका सारा पैसा!” उसने गुस्से में भरकर सोचा।’ वह अपने भाई या किसी और के लिए सारा पैसा निकालकर ले गयी होगी। मैं यहाँ दिन भर मेहनत करता हूँ उसके भाई के लिए?. अगली दफा भाई दिखायी दिया तो मैं उसकी गर्दन मरोड़ दूँगा।’ यह सोचकर उसे बहुत संतोष हुआ।

    बक्से की और तलाशी लेते हुए उसे कोने में रखा एक सिगरेट का टिन हाथ लगा। उसे हिलाया तो भीतर रखे सिक्के बजने लगे। यह डिब्बा देखकर उसे बहुत अच्छा लगा-यह लाल टिन उसके बच्चे का था। उसे याद आया कि कैसे एक दिन उसका बेटा यात्रियों के बंगले के पीछे कूड़े के ढेर से इसे ढूँढ़कर लाया था-छाती में छिपाकर दौड़ते हुए आकर उसे यह दिखाया था।

    पहले तो वह दिन भर इस टिन के साथ सड़क पर खेलता रहा, इसमें बालू भरता, फिर फेंक देता, फिर भरता.। फिर कन्नन ने उससे कहा कि ‘लाओ, इसकी गुल्लक बना देते हैं जिसमें तुम पैसे जमा करना।” पहले तो लड़का इसके लिए तैयार नहीं हुआ। जब कन्नन ने बड़े विस्तार से गुल्लक में पैसे रखने के फायदे समझाये, तो वह मान गया, और एकदम बना देने की जिद करने लगा। बोला, ‘जब यह पैसों से भर जायेगी तो मैं बड़े घर के लड़के के पास जैसी मोटर है, वैसी ही मैं भी खरीदूँगा, मुँह से बजाने वाला बाजा लूगा और एक हरी पेंसिल.।”

    बेटे की योजना सुनकर कन्नन जोर से हँसा। वह लुहार के पास डिब्बा ले गया, उसका मुँह बंद करवाकर उसमें पैसे डालने लायक एक छेद बनवा दिया। अब यह लड़के की सबसे खास चीज हो गयी और वह अक्सर इसे बाप के सामने रखकर पैसा डलवा लेता। अक्सर वह पिता से पूछता, ‘अब पूरा भर गया है क्या? मैं इसे कब खोल सकूंगा?’

    इसे वह अपनी माँ के बक्स में साड़ियों की तह के भीतर अच्छी तरह छिपा कर रखता और देखता कि बक्स का ताला अच्छी तरह बंद कर दिया गया है या नहीं। उसे देखकर मन अक्सर कहता, ‘बहुत समझदार लड़का है। यह बड़े काम करेगा। मैं इसे शहर के स्कूल में पढ़ने भेजूंगा।’। अब कन्नन ने डिब्बा उठाया और उसे हिलाकर जानने की कोशिश की कि उसमें कितना पैसा होगा।

    बीवी के खिलाफ भावना होने के कारण अचानक उसे एक नया विचार आया। उसने कोशिश की कि डिब्बे से पैसे बाहर निकाले, लेकिन एक भी पैसा बाहर नहीं आया। लुहार ने उसका छेद बड़ी कुशलता से इतना ही बड़ा बनाया था कि सिक्का भीतर तो चला जाये, बाहर न आ सके। दुनिया की कोई भी शक्ति अब पैसे बाहर नहीं निकाल सकती थी। एक मिनट बाद वह डिब्बा हिलाना रोककर सोचने लगा, ‘अपने बेटे की गुल्लक से पैसे निकालकर क्या वह ठीक कर रहा है?’

    मन में ही जवाब आया, ‘क्यों नहीं? बाप और बेटा एक नहीं होते क्या? यही नहीं, मैं तो यह रकम दुगनी-तिगुनी करने जा रहा हूँ जिसे बाद में इसी में रख दूँगा। इस तरह मैं डिब्बा खोलकर बेटे का भला ही कर रहा हूँ।’। फैसला हो गया। वह चारों तरफ देखने लगा कि कोई ऐसी चीज मिल जाये जिससे छेद को बड़ा किया जा सके। उसने बेकार पड़ी बहुत-सी चीजों का डिब्बा ढूँढ़ डाला-बोतल, डाट, जूते का तला, रस्सी वगैरह, लेकिन कोई नुकीली चीज उसे न मिली।

    चाकू कहाँ चला गया? उसे बीवी पर फिर गुस्सा आया, औरतें क्यों हर चीज को छुपाकर रखती हैं? हो सकता है वह चाकू भी भाई के लिए ले गयी हो! डिब्बा लेकर वह उसे जमीन पर जोर-जोर से पटकने लगा। इससे वह तुड़मुड़ तो गया, उसकी शक्ल खराब हो गयी लेकिन पैसा बाहर नहीं आया।

    उसने इधर-उधर देखा। दीवाल पर एक कील के सहारे देवता की मढ़ी हुई तस्वीर टैंगी थी। तस्वीर उतारकर उसने कील बाहर निकाल ली। जमीन पर पड़े देवता को देखकर उसका मन खराब हुआ और उसने झुककर उसके पैरों पर सिर लगाया। फिर उसने एक पत्थर उठाया और कील डिब्बे के छेद पर रखकर उसे ठोंकने लगा। कील फिसल गयीं और पत्थर उसके अँगूठे पर जा पड़ा। अँगूठा दब कर नीला पड़ गया और दर्द से वह चीख उठा। डिब्बा जमीन पर फेंक दिया। डिब्बा कोने में पड़ा उसे चिढ़कर देखने लगा।’कुते !”

    उसने फुसफुसाकर कहा और फिर अँगूठा पकड़कर कराहने लगा। फिर बोला, ‘अब मैं तुमसे जरूर निबटुंगा।’। वह रसोई में गया और वहाँ से पत्थर की बड़ी मुसली दोनों हाथों से सिर पर उठाकर लाया, फिर उसे डिब्बे पर जोर से दे मारा। डिब्बा पिचककर दोहरा हो गया और फट भी गया।

    उसने भीतर से पैसे निकाले और भूखे की तरह उन्हें गिनने लगा-कुल छह आने और तीन पैसे के सिक्के थे। पैसे उसने धोती की कमर में कसकर बाँधे और बाहर निकल आया।

    मंटपम में भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया, कहें कि पास ही नहीं फटका। थोड़ी ही देर में वह सारे पैसे हार गया। इसके बाद कुछ देर वह उधार पर खेलता रहा, लेकिन दूसरों ने कहा कि वह हट जाये और पैसे वाले को खेलने दे। वह उठकर बाहर निकल आया और घर लौट चला-सूरज अभी डूबा नहीं था।

    जब वह गली में घुसा, उसने देखा कि सामने से उसकी बीवी सिर पर पोटली रखे और हाथ से बेटे को पकड़े चली आ रही है। कन्नन सहम उठा। ‘यह सपना भी हो सकता है?’ उसने सोचा और ध्यान से देखा। बीवी पास आ गयी थी, बोली, ‘बस आ रही थी, मैंने सोचा कि घर लौट चलें।’। वह दरवाजे की ओर बढ़ने लगी। कन्नन डरकर देखने लगा, उसका बक्स भीतर खुला पड़ा था, सामान बिखरा हुआ, जमीन पर भगवान् की तस्वीर और बेटे का डिब्बा टूटा हुआ-घर में पैर रखते ही उसे यह सब दिखाई देगा।

    स्थिति निराशाजनक थी। उसने मशीन की तरह दरवाजा खोला। ‘तुम इस तरह क्यों देख रहे हो?’ बीवी ने पूछा और भीतर चली। बेटे ने दो पैसे निकालकर उसे दिये, ‘चाचा ने मुझे दिये हैं। इन्हें भी गुल्लक में रख देंगे।’। कन्नन ने परेशानी की चीख मारी। लड़के ने पूछा, ‘आप यह क्या कर रहे हैं?’। कन्नन ने अपना नीला औगूठा दिखाकर कहा, ‘बड़ी चोट लग गयी आज, और कोई बात नहीं,” और उनके पीछे, अब क्या होगा, सोचते हुए घर में घुसने लगा।Writing By: R. K. Narayan

    4# दो फूल – By Mahadevi Verma

    फागुन की गुलाबी जाड़े की वह सुनहली संध्या क्या भुलाई जा सकती है ! सवेरे के पुलकपखी वैतालिक एक लयवती उड़ान में अपने-अपने नीड़ों की ओर लौट रहे थे। विरल बादलों के अन्ताल से उन पर चलाए हुए सूर्य के सोने के शब्दवेधी बाण उनकी उन्माद गति में ही उलझ कर लक्ष्य-भ्रष्ट हो रहे थे।

    पश्चिम में रंगों का उत्सव देखते-देखते जैसे ही मुँह फेरा कि नौकर सामने आ खड़ा हुआ। पता चला, अपना नाम न बताने वाले एक वृद्ध सज्जन मुझसे मिलने की प्रतीक्षा में बहुत देर से बाहर खड़े हैं। उनसे सवेरे आने के लिए कहना अरण्य-रोदन ही हो गया।

    मेरी कविता की पहली पंक्ति ही लिखी गई थी, अतः मन खिसिया-सा आया। मेरे काम से अधिक महत्त्वपूर्ण कौन-सा काम हो सकता है, जिसके लिए असमय में उपस्थित होकर उन्होंने मेरी कविता को प्राण प्रतिष्ठा से पहले ही खण्डित मूर्ति के समान बना दिया ! ‘मैं कवि हूं’ में जब मेरे मन का सम्पूर्ण अभिमान पुञ्जीभूत होने लगा, तब यदि विवेक का ‘पर मनुष्य नहीं’ में छिपा व्यंग बहुत गहरा न चुभ जाता तो कदाचित् मैं न उठती।

    कुछ खीझी, कुछ कठोर-सी मैं बिना देखे ही एक नई और दूसरी पुरानी चप्पल में पैर डालकर जिस तेजी से बाहर आयी उसी तेजी से उस अवांछित आगुंतुक के सामने निस्तब्ध और निर्वाक हो रही। बचपन में मैंने कभी किसी चित्रकार का बनाया कण्व ऋषि का चित्र देखा था-वृद्ध में मानो वह सजीव हो गया था। दूध से सफेद बाल और दूधफेनी-सी सफेद दाढ़ी वाला वह मुख झुर्रियों के कारण समय का अंकगणित हो रहा था। कभी की सतेज आंखें आज ऐसी लग रही थीं, मानो किसी ने चमकीले दर्पण पर फूंक मार दी हो।

    एक क्षण में ही उन्हें धवल सिर से लेकर धूल भरे पैरों तक, कुछ पुरानी काली चप्पलों से लेकर पसीने और मैल की एक बहुत पतली कोर से युक्त खादी की धुली टोपी तक देखकर कहा-‘आप को पहचानी नहीं।’ अनुभवों से मलिन, पर आंसुओं से उजली उनकी दृष्टि पल भर को उठी, फिर कांस के फूल जैसी बरौनियों वाली पलकें झुक आईं-न जाने व्यथा के भार से, न जाने लज्जा से।

    एक क्लान्त पर शान्त कण्ठ ने उत्तर दिया-‘जिसके द्वार पर आया है उसका नाम जानता है, इससे अधिक मांगने वाले का परिचय क्या होगा ? मेरी पोती आपसे एक बार मिलने के लिए बहुत विकल है। दो दिन से इसी उधेड़-बुन में पड़ा था। आज साहस करके आ सका हूं-कल तक शायद साहस न ठहरता इसी से मिलने के लिए हठ कर रहा था। पर क्या आप इतना कष्ट स्वीकार करके चल सकेंगी ? तांगा खड़ा है।’

    मैं आश्चर्य से वृद्ध की ओर देखती रह गई-मेरे परिचित ही नहीं, अपरिचित भी जानते हैं कि मैं सहज ही कहीं आती-जाती नहीं। यह शायद बाहर से आए हैं। पूछा-‘क्या वह नहीं आ सकती ?’ वृद्ध के लज्जित होने का कारण मैं न समझ सकी। उनके होंठ हिले; पर कोई स्वर न निकल सका और मुंह फेर कर गीली आंखों को छिपाने की चेष्टा करने लगे। उनका कष्ट देखकर मेरा बीमारी के सम्बन्ध में प्रश्न करना स्वाभाविक ही था। वृद्ध ने नितान्त हताश मुद्रा में स्वीकृतिसूचक मस्तक हिलाकर कुछ बिखरे से शब्दों में यह स्पष्ट कर दिया कि उनके एक पोती है जो आठ की अवस्था में मातृ-पितृहीन और ग्यारहवें वर्ष में विधवा हो गई थी।

    अधिक तर्क-वितर्क का अवकाश नहीं था-सोचा वृद्ध की पोती अवश्य ही मरणासन्न है ! बेचारी अभागी बालिका ! पर मैं तो कोई डाक्टर या वैद्य नहीं हूं और मुंडन, कनछेदन आदि में कवि को बुलाने वाले लोग अभी उसे गीतावाचक के समान अन्तिम समय में बुलाना नहीं सीखे हैं। वृद्ध जिस निहोरे के साथ मेरे मुख का प्रत्येक भाव परिवर्तन देख रहे थे, उसी ने मानो मेरे कण्ठ से बलात् कहला दिया-‘चलिए, किसी को साथ ले लूं, क्योंकि लौटते-लौटते अंधेरा हो जाएगा।’

    नगर की शिराओं के समान फैली और एक- दूसरी से उलझी हुई गलियों से जिनमें दूषित रक्त जैसा नालियों का मैला पानी बहता है और रोग के कीटाणुओं की तरह नये मैले बालक घूमते हैं, मेरा उस दिन विशेष परिचय हुआ। किसी प्रकार का एक तिमंजिले मकान की सीढ़ियां पार कर हम लोग ऊपर पहुंचे। दालान में ही मैली फटी दरी पर, खम्भे का सहारा लेकर बैठी हुई एक स्त्री मूर्ति दिखाई दी, जिसकी गोद में मैले कपड़ों में लिपटा एक पिण्ड-सा था। वृद्ध मुझे वहीं छोड़कर भीतर के कमरे को पार कर दूसरी ओर के छज्जे पर जा खड़े हुए, जहां से उनके थके शरीर और टूटे मन को द्वंद्व धुंधले चल-चित्र का कोई मूक, पर करुण दृश्य बनने लगा।

    एक उदासीन कण्ठ से ‘आइए’ में निकट आने का निमन्त्रण पाकर मैंने अभ्यर्थना करनेवाली की ओर ध्यान से देखा। वृद्ध से उसकी मुखाकृति इतनी मिलती थी कि आश्चर्य होता था। वही मुख की गठन, उसी प्रकार के चमकीले पर धुंधले नेत्र और वैसे ही कांपते ओंठ। रूखे बाल और मलिन वस्त्रों में उसकी कठोरता वैसी ही दयनीय जान पड़ती थी, जैसी जमीन में बहुत दिन गड़ी रहने के उपरान्त खोदकर निकाली हुई तलवार।

    कुछ खिजलाहट भरे स्वर में कहा-‘बड़ी दया की पिछले पांच महीने से हम जो कष्ट उठा रहे हैं, उसे भगवान ही जानते हैं। अब जाकर छुट्टी मिली है पर लड़की का हठ तो देखो। अनाथालय में देने के नाम से बिलखने लगती है, किसी और के पास छोड़ आने की चर्चा से अन्न-जल छोड़ बैठती है। बार-बार समझाया कि जिससे न जान, न पहचान उसे ऐसी मुसीबत में घसीटना कहां की भलमनसाहत है; पर यहां सुनता कौन है !

    लालाजी बेचारे तो संकोच के मारे जाते ही नहीं थे; पर जब हार गये, तब झक मार कर जाना पड़ा। अब आप ही उद्धार करें तो प्राण बचे।’ इस लम्बी-चौड़ी सारगर्भित भूमिका से अवाक् मैं जब कुछ प्रकृतिस्थ हुई तब वस्तुस्थिति मेरे सामने धीरे-धीरे वैसे ही स्पष्ट होने लगी, जैसे पानी में कुछ देर रहने पर तल की वस्तुएं। यदि यह न कहूं कि मेरा शरीर सिहर उठा था, पैर अवसन्न हो रहे थे और माथे पर पसीने की बूंदें आ गई थीं, तो असत्य कहना होगा । सामाजिक विकृति का बौद्धिक निरूपण मैंने अनेक बार किया है; पर जीवन की एक विभीषिका से मेरा यही पहला साक्षात था।

    मेरे सुधार सम्बन्धी दृष्टिकोण को लक्ष्य करके परिवार में प्रायः सभी ने कुछ निराश भाव से सिर हिलाकर मुझे यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि मेरी सात्विक कला इस लू का झोंका न सह सकेगी और साधना की छाया में पले मेरे कोमल सपने इस धुएं में जी न सकेंगे।

    मैंने अनेक बार सबको यही एक उत्तर दिया है कि कीचड़ से कीचड़ को धो सकना न सम्भव हुआ है न होगा; उसे धोने के लिए निर्मल जल चाहिए। मेरा सदा से विश्वास रहा है कि अपने दलों पर मोती-सा जल भी न ठहरने देनेवाली कमल की सीमातीत स्वच्छता ही उसे पंक में जीने की शक्ति देती है।

    -और तब अपने ऊपर कुछ लज्जित होकर मैंने उस मटमैले शाल को हटाकर निकट से उसे देखा, जिसको लेकर बाहर-भीतर इतना प्रलय मचा हुआ था। उग्रता की प्रतिमूर्ति-सी नारी की उपेक्षा-भरी गोद और मलिनतम आवरण उस कोमल मुख पर एक अलक्षित करुणा की छाप लगा रहे थे।

    चिकने, काले और छोटे-छोटे बाल पसीने से उसके ललाट पर चिपक कर काले अक्षरों जैसे जान पड़ते थे और मुंदी पलकें गालों पर दो अर्धवृत्त बना रही थीं। छोटी लाल कली जैसा मुंह नींद में कुछ खुल गया था और उस पर एक विicत्र-सी मुस्कराहट थी, मानो कोई सुन्दर स्वप्न देख रहा हो।

    इसके आने से कितने भरे हृदय सूख गए, कितनी सूखी आंखों में बाढ़ आ गई और कितनों को जीवन की घड़ियां भरना दूभर हो गया, इसका इसे कोई ज्ञान नहीं। यह अनाहूत, अवांछित अतिथि अपने सम्बन्ध में भी क्या जानता है। इसके आगमन ने इसकी माता को किसी की दृष्टि में आदरणीय नहीं बनाया, इसके स्वागत में मेवे नहीं बंटे, बधाई नहीं गाई गई, दादा-नाना ने अनेक नाम नहीं सोचे, चाची-ताई ने अपने-अपने नेग के लिए वाद-विवाद नहीं किया और पिता ने इसमें अपनी आत्मा का प्रतिरूप नहीं देखा। केवल इतना ही नहीं, इसके फूटे कपाल में विधाता ने माता का वह अंक भी नहीं लिखा जिसका अधिकारी, निर्धन-से-निर्धन, पीड़ित-से-पीड़ित स्त्री का बालक हो सकता है।

    समाज के क्रूर व्यंग से बचने के लिए एक घोरतम नरक में अज्ञातवास कर जब इसकी मां ने अकेले यन्त्रणा से छटपटा-छटपटा कर इसे पाया, तब मानो उसकी सांस छूकर ही यह बुझे कोयले से दहकता अंगारा हो गया। यह कैसे जीवित रहेगा, इसकी किसी को चिन्ता नहीं है। है तो केवल यह कि कैसे अपने सिर बिना हत्या का भार लिए ही इसे जीवन के भार से मुक्त करने का उपकार कर सकें।

    मन पर जब एक गम्भीर विषाद असह्य हो उठा, तब उठकर मैंने उस बालिका को देखने की इच्छा प्रकट की। उत्तर में विरक्त-सी बुआ ने दालान की बायीं दिशा में एक अंधेरी कोठरी की ओर उंगली उठा दी।

    भीतर जाकर पहले तो कुछ स्पष्ट दिखाई ही नहीं दिया, केवल कपड़ों की सरसराहट के साथ खाट पर एक छाया-सी उठती जान पड़ी; पर कुछ क्षणों में आँखें अँधेरे की अभ्यस्त हो गयीं, तब मैंने आले पर रखे हुए दिए के पास से दियासलाई उठाकर उसे जला दिया।

    स्मरण नहीं आता वैसी करुणा मैंने कहीं और देखी है। खाट पर बिछी मैली दरी, सहस्रों सिकुड़न भरी मलिन चादर और तेल के कई धब्बे वाले तकिए के साथ मैंने जिस दयनीय मूर्ति से साक्षात्‌ किया, उसका ठीक चित्र दे सकना सम्भव नहीं है। वह 18 वर्ष से अधिक की नहीं जान पड़ती थी-दुर्बल और असहाय जैसी । सूखे ओंठ वाले, सांवले, रक्तहीनता से पीले पुख में आंखें ऐसे जल रही थीं जैसे तेलहीन दीपक की बत्ती।

    उस अस्वाभाविक निस्तब्धता से ही उसकी मानसिक स्थिति का अनुमान कर मैं सिरहाने रखी हुई ऊँची चौकी पर से लोटे को हटाकर उस पर बैठ गयी। और तब जाने किस अज्ञात प्रेरणा से मेरे मन का निष्क्रिय विषाद क्रोध के सहस्र स्फुलिंगों में बदलने लगा।

    अपने अकाल वैधव्य के लिए वह दोषी नहीं ठहराई जा सकती, उसे किसी ने धोखा दिया, इसका उत्तरदायित्व भी उस पर नहीं रखा जा सकता; पर उसकी आत्मा का जो अंश, हृदय का जो खण्ड उसके सामने है, उसके जीवन-मरण के लिए केवल वही उत्तरदायी है।

    कोई पुरुष यदि उसको अपनी पत्नी स्वीकार नहीं करता, तो केवल इसी मिथ्या के आधार वह अपने जीवन के इस सत्य को, अपने बालक को अस्वीकार कर देगी? संसार में चाहे इसको कोई परिचयात्मक विशेषण न मिला हो; परन्तु अपने बालक के निकट तो यह गरिमामयी जननी की संज्ञा ही पाती रहेगी ? इसी कर्तव्य को अस्वीकार करने का यह प्रबन्ध कर रही है।

    किसलिए ? केवल इसलिए कि या तो उस वंचक समाज में फिर लौटकर गंगा-स्नान कर, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ आदि के द्वारा सती विधवा का स्वांग भरती हुई और भूलों की सुविधा पा सके या किसी विधवा-आश्रम में पशु के समान नीलामी पर चढ़कर कभी नीची, कभी ऊंची बोली पर बिके, अन्यथा एक-एक बूंद विष पीकर धीरे-धीरे प्राण दे।

    स्त्री अपने बालक को हृदय से लगाकर जितनी निर्भर है, उतनी किसी और अवस्था में नहीं। वह अपनी संतान की रक्षा के समय जैसी उग्र चन्डी है वैसी और किसी स्थिति में नहीं। इसी से कदाचित्‌ लोलुप संसार उसे अपने चक्रव्यूह में घेरकर बाणों से छलनी करने के लिए पहले इसी कवच को छीनने का विधान कर देता है। यदि यह स्त्रियां अपने शिशु को गोद में लेकर साहस से कह सकें कि “बर्बरो, तुमने हमारा नारीत्व, पत्नीत्व सब ले लिया; पर हम अपना मातृत्व किसी प्रकार न देंगी’ तो इनकी समस्याएं तुरन्त सुलझ जावें। जो समाज इन्हें वीरता, साहस और त्याग भरे मातृत्व के साथ नहीं स्वीकार कर सकता, क्‍या वह इनकी कायरता और दैन्य भरी मूर्ति को ऊंचे सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर पूजेगा ? युगों से पुरुष स्त्री को उसकी शक्ति के लिए नहीं, सहनशक्ति के लिए ही दण्ड देता आ रहा है।

    मैं अपने भावावेश में इतनी स्थिर हो उठी थी कि उस समय का कहा-सुना आज उसी रूप में ठीक-ठीक याद नहीं आता। परन्तु जब उसने खाट से ज़मीन पर उतरकर अपनी दुर्बल बाहों से मेरे पैरों को घेरते हुए मेरे घुटनों में मुंह छिपा लिया, तब उसकी चुपचाप बरसती हुई आंखों का अनुभव कर मेरा मन पश्चाताप से व्याकुल होने लगा।

    उसने अपने नीरव आंसुओं में अस्फुट शब्द गूँथ-गूँथकर मुझे यह समझाने का प्रयत्न किया कि वह अपने बच्चे को नहीं देना चाहती। यदि उसके दादाजी राजी न हों, तो मैं उसके लिए ऐसा प्रबन्ध कर दूं, जिससे उसे दिन में एक कर दो रूखी-सूखी रोटियां मिल सकें। कपड़े वह मेरे उतारे ही पहन लेगी और कोई विशेष खर्च उसका नहीं है। फिर जब बच्चा बड़ा हो जाएगा, तब जो काम मैं उसको बता दूँगी, वही तन-मन से करती वह जीवन बिता देगी।

    पर जब तक वह फिर कोई अपराध न करे, तब तक मैं अपने ऊपर उसका वही अधिकार बना रहने दूं, जिसे वह मेरी लड़की के रूप में पा सकती थी। उसके मां नहीं है, इसी से उसकी इतनी दुर्दशा सम्भव हो सकी-अब यदि मैं उसे मां की ममता भरी छाया दे सकूँ, तो वह अपने बालक के साथ कहीं भी सुरक्षित रह सकेगी।

    उस बालिका माता के मस्तक पर हाथ रखकर मैं सोचने लगी कि कहीं यह वरद हो सकता। इस पतझड़ के युग में समाज से फूल चाहे न मिल सकें; पर धूल की किसी स्त्री को कमी नहीं रह सकती, इस सत्य को यह रक्षा की याचना करने वाली नहीं जानती।

    -पर 27 वर्ष की अवस्था में मुझे 18-वर्षीय लड़की और 22 दिन के नाती का भार स्वीकार करना ही पड़ा।

    वृद्ध अपने सहानुभूतिहीन प्रान्त में भी लौट जाना चाहते थे, उपहास भरे समाज की विडम्बना में भी शेष दिन बिताने को इच्छुक थे और व्यंग भरे क्रूर पड़ोसियों से भी मिलने को आकुल थे; परन्तु मनुष्यता की ऊंची पुकार में यह संस्कार के क्षीण स्वर दब गये।

    अब आज तो वे किसी अज्ञात लोक में हैं। मलय के झोंके के समान मुझे कंटक-वन में खींच लाकर उन्होंने जो दो फूलों की धरोहर सौंपी थी, उससे मुझे स्नेह की सुरभि ही मिली है। हां, उन फूलों में से एक को शिकायत है कि मैं उसकी गाथा सुनने का अवकाश नहीं पाती और दूसरा कहता है कि मैं राजकुमार की कहानी नहीं सुनाती।

    5# एक औरत की तस्वीर – By Khushwant Singh

    मेरी दादी-माँ, और सब दादियों की तरह, बूढ़ी थीं। मैं बीस साल से उनकी ऐसी ही झुर्रियोंदार बूढ़ी काया देख रहा था । लोग कहते थे कि वह कभी युवती और सुन्दर थीं और उनका पति भी था, पर इस पर विश्वास करना कठिन था। मेरे दादा का चित्र बाहर के बड़े कमरे में दीवार पर लगा था।

    वे दीले-से कपड़े पहने थे और सिर पर बड़ी पगड़ी थी। लम्बी सफ़ेद दाढ़ी सीने पर नीचे तक फैली थी और वे कम-से-कम सौ वर्ष के लगते थे। वे ऐसे नहीं लगते थे जिनके एक पत्नी और कई बच्चे भी थे।

    ऐसे लगते थे, जिनके ढेर सारे एक औरत पोते-पोतियाँ ही हो सकते थे और दादी के बारे में तो यह विचार, कि वह कभी सुन्दर और जवान भी रही होंगी, एकदम गलत लगता था।

    वह की तस्वीर अक्सर हमें बताती थीं कि बचपन में वह क्‍या खेला करती थीं। उनके ये विचार हमें बहुत बेहूदा और भौंडे लगते थे और हम ये बातें उनकी सुनाई देवी-देवताओं और मसीहों की कहानियों की तरह सुनकर भूल जाते थे।

    उनका क़द हमेशा छोटा, शरीर मोटा और कमर झुकी-झुकी रहती थी। उनके चेहरे पर एक-दूसरे को काटती बहुत सी झुर्रियाँ थीं जो हर जगह “ से निकलकर हर किसी जगह तक दौड़ती नज़र आती थीं। हमारा मानना था कि वह हमेशा ऐसी ही थीं ।

    वह बूढ़ी थीं, बहुत ज़्यादा बूढ़ी, इतनी ज़्यादा कि और बूढ़ी हो ही नहीं सकती थीं और पिछले बीस साल से ऐसी ही बनी रही थीं। वह सुन्दर तो हो ही नहीं सकती थीं, अच्छी ज़रूर लगती रही होंगी। वह झक सफ़ेद कपड़े पहने घर भर में उचक-उचककर घूमती

    रहती थीं, एक हाथ कमर पर रखे कि संतुलन बना रहे और दूसरे में सुमिरनी जिसे वह हमेशा जपती रहती थीं। उनके चाँदी की तरह चमकते बाल पीले, टेढ़े-मेढ़े चेहरे पर बेतरतीब फैले होते, और होंठों से भजन बुदबुदाती रहती थीं। हाँ, वह बहुत अच्छी लगती थीं।

    वह पहाड़ों पर सर्दी के दृश्य की तरह थीं, चारों तरफ़ सफ़ेद बर्फ़ से ढँकी, जो शान्ति और संतोष की भावना जगाती है। दादी माँ और मैं बहुत अच्छे मित्र थे। मेरे माता-पिता जब शहर रहने गये तो मुझे उनके पास छोड़ गये थे और हम हमेशा साथ रहते थे।

    वह सवेरे मुझे जगाती और स्कूल के लिए तैयार करती। मुझे नहलाते-धुलाते और कपड़े पहनाते समय वह मीठी आवाज़ में प्रार्थना इस तरह गुनगुनाती रहती, जिससे वह मुझे भी याद हो जाये।

    मुझे उनकी आवाज़ अच्छी लगती थी इसलिए मैं सुनता तो रहता, लेकिन मैंने याद करने की ज़हमत नहीं मोल ली।

    फिर वह मेरी लकड़ी की पड़ी लातीं, जिसे उसने पहले ही साफ़ करके और खड़िया से पोत कर रखा होता था, और सरकंडे की कलम और मिट्टी का बुद्का, सब एक थैले में रखकर मुझे पकड़ा देती । इसके बाद हम शाम की रखी बासी रोटी पर ज़रा-सा घी और शक्कर चुपड़-कर नाश्ता करते और स्कूल के लिए चल पड़ते। वह कुछ और बासी रोटियाँ साथ रखतीं जिन्हें वह रास्ते के कुत्तों को खिलाती चलती थीं।

    दादी माँ मेरे साथ हमेशा स्कूल इसलिए जाती थीं क्योंकि वह गुरुद्वारे का ही हिस्सा था। ग्रन्थी हमें वर्णमाला और सवेरे की प्रार्थना सिखाता था।

    हम बच्चे वरांडे में दोनों तरफ़ कतार बनाकर बैठ जाते और गाने के स्वर में वर्णमाला या प्रार्थना दोहराते रहते और दादी माँ भीतर जाकर ग्रन्थ साहब का पाठ करतीं जब दोनों का काम पूरा हो जाता, हम एक साथ वापस घर लौटते इस दफ़ा गाँव के कुत्ते गुरुद्वारे के दरवाज़े पर हमें मिलते।

    वे हमारे पीछे चलते, दादी माँ द्वारा फेंकी जाने-वाली रोटियों के लिए लड़ते-झगड़ते घर तक आते। जब हमारे माता-पिता शहर में आराम से रहने लगे, तब उन्होंने हमें भी बुला भेजा।

    अब हमारी घनिष्ठता खत्म हो गई; दादी माँ का मेरे साथ स्कूल आना बन्द हो गया। मैं बस से अंग्रेज़ी स्कूल जाने लगा। यहाँ सड़कों पर कूत्ते नहीं होते थे, इसलिए दादी माँ ने घर के आँगन में पक्षियों को चुग्गा डालना शुरू कर दिया।

    समय बीतने के साथ हमारा मिलना-जुलना भी कम होने लगा। कुछ दिन तक तो वह मुझे सवेरे जगाकर स्कूल जाने के लिए तैयार करती रहीं । जब मैं घर लौटता तो वह पूछतीं कि आज गुरुजी ने क्‍या सिखाया है ?

    मैं उन्हें अंग्रेज़ी के शब्द बताता और पश्चिमी विज्ञान तथा शिक्षा की बातें, जैसे आकर्षण का सिद्धान्त, आर्किमिडीज़ का नियम, दुनिया गोल है, वगैरह, समझाकर बताता। लेकिन यह उन्हें अच्छा नहीं लगता था। इसमें वह मेरी बिलकुल मदद नहीं कर सकती थीं।

    अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ाई जानेवाली ये बातें उन्हें बेकार लगती थीं और उन्हें दुःख होता कि यहाँ भगवान और धर्म के बारे में कुछ क्‍यों नहीं बताया जाता। एक दिन मैंने बताया कि अब हमें संगीत भी सिखाया जाने लगा हैं। इससे उन्हें बड़ी परेशानी हुई। उनकी दृष्टि में संगीत का मतलब भोग-विलास था।

    वह वेश्याओं और भिखारियों के लिए ही था और सभ्य लोग इससे दूर रहते थे। इसके बाद उन्होंने मुझसे बात करना बहुत कम कर दिया। जब मैंने यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया, मुझे एक अलग कमरा दे दिया गया।

    अब हमारा सम्बन्ध एकदम समाप्त हो गया। दादी माँ ने चुपचाप यह अलगाव स्वीकार कर लिया। अब वह हर वक्‍त चरखा चलाती रहतीं और किसी से बात नहीं करती थीं।सवेरे से शाम तक वह सूत काततीं और भजन गाती रहती थीं ।

    सिर्फ़ शाम के वक्‍त वह थोड़ी देर के लिए उठतीं और चिड़ियों को खाना खिलातीं । वरांडे में आराम से बैठी वह रोटियों के छोटे-छोटे टुकड़े करतीं, उन्हें चिड़ियों को डालती रहतीं और चिड़ियों का झुंड उनके इधर-उधर-चूँ-चूँ करता खाता और उड़ता रहता।

    कई चिड़ियाँ उनके कंधों पर, हाथ और पैरों पर और सिर पर भी बैठकर खातीं और चोंचे मारतीं, लेकिन वह उन्हें उड़ाती नहीं थीं बल्कि मुस्कुराकर रह जाती थीं। उनके लिए दिन का सबसे सुखी समय यही आधा घंटा होता था।

    जब मैं उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाने लगा, तब मैंने सोचा कि दादी माँ इससे बहुत दुखी होंगी। मुझे पाँच साल बाहर रहना था और इस बीच पता नहीं क्या हो जाये। लेकिन दादी माँ ज्यों की त्यों रहीं। उन्होंने कोई दुःख नहीं प्रकट किया।

    वे स्टेशन मुझे छोड़ने आईं और धीरे-धीरे प्रार्थना करती रहीं। उनके हाथ में माला थी, जिसे वह चुपचाप जपती रहीं । उन्होंने मेरा माथा चूमा और जब मैं चलने लगा तो मुझे लगा कि उनका यह चुंबन मेरे लिए कितना कीमती है। लेकिन मैं जो सोचता था, वह नहीं हुआ।

    पाँच साल बाद जब मैं वापस लौटा, तो वह मुझे लेने स्टेशन आईं। वे उतनी ही बूढ़ी लग रही थीं, जितनी मेरे जाने के दिन थीं, उससे एक दिन भी ज़्यादा नहीं। उन्होंने कुछ कहा नहीं और मुझे अपनी बाँहों में भर लिया-उनकी प्रार्थना मेरे कानों में पड़ रही थी।

    लौटने के बाद पहले दिन भी मैंने देखा कि वह उसी तरह चिड़ियों को खाना खिलातीं उनसे हल्की-फुल्की बातें करती वैसी ही खुश हैं। शाम को उनमें एक परिवर्तन दिखाई दिया। आज उन्होंने प्रार्थना नहीं की। अपने पड़ोस की औरतों को इकट्ठा किया, एक ढोलक ली और उसे बजा-बजाकर ज़ोर-ज़ोर से गाना शुरू किया।

    कई घंटे वह इस पुरानी दोलक पर गाती-बजाती योद्धाओं की घर-वापसी के गीत गाती रहीं। हमें उन्हें समझाकर रोकना पड़ा कि इससे उनका तनाव बढ़ेगा।

    मैंने पहली बार देखा कि उन्होंने हमेशा की तरह प्रार्थना नहीं की। दूसरे दिन सवेरे उन्हें बुखार चढ़ आया डॉक्टर बुलाया गया तो उसने देखकर कहा कि कोई खास बात नहीं है, बुखार उतर जायेगा। लेकिन दादी माँ ने कुछ और ही कहा। कहने लगीं कि अब उनका अन्त निकट है।

    उन्होंने कहा कि कई घंटे से प्रार्थना नहीं की है इसलिए अब वह किसी से बात नहीं करेंगी, बल्कि सारा समय प्रार्थना में ही बितायेंगी। हमने इसका विरोध किया। लेकिन हमारी बातों को नज़रंदाज़ करके वह शान्तिपूर्वक खाट पर लेटी चुपचाप सुमिरन फेरती प्रार्थना करती रहीं ।

    हमारी उम्मीद से पहले ही उनके होंठ अचानक बन्द हो गये, सुमिरनी हाथ से गिर पड़ी और आँखें बन्द हो गई उनका चेहरा हल्का पीला पड़ गया और हम समझ गये कि वह नहीं रही हैं।

    हमने उन्हें बिस्तर से उठाया और जैसी प्रथा है, धरती पर रख दिया और उनके शरीर पर एक कपड़ा डाल दिया। कुछ घंटे शोक मनाने के बाद हम उनके दाह-संस्कार की तैयारी करने लगे। शाम हुई तो हम लकड़ी की एक टिकटी लेकर उनके कमरे में गये। सूरज डूब रहा था और उसकी सुनहरी रोशनी वरांडे तक फैली हुई थी।

    हमने देखा कि पूरे वरांडे और कमरे में जहाँ उनका शव रखा था, हज़ारों चिड़ियाँ चारों तरफ़ बैठी हैं। वे सब एकदम चुप थीं। मेरी माँ उनके लिए रोटियाँ लेकर आईं और जिस तरह दादी माँ उनके टुकड़े-टुकड़े करके उनके सामने डालती थीं, उसी तरह वह भी करने लगीं।

    लेकिन चिड़ियों ने उन पर ध्यान नहीं दिया। जब हम दादी माँ की अरथी उठाकर बाहर लाये, तब वे चुपचाप उड़ गईं। दूसरे दिन सवेरे भंगी ने रोटी के वे टुकड़े इकट्ठा किये और कूड़ेदान में डाल . दिये।

    5# लाजवन्ती : मुल्कराज आनन्द – Lajwanti : Mulk Raj Anand

    मई की लू आसमान की तपती हुई भट्ठी की लपट की तरह लाजवंती के चेहरे पर लग रही थी। सूरज, जिसके मुंह से अग्निमय हवा निकल रही थी, लगता था कि निर्दयता से उसके पीछे खड़ा था। उसका दढ़ियल जेठ जसवंत भी रह-रहकर खड़ा हो जाता था। ऊपरी तौर से काम के लिए वह लाजवंती के अंकुश लगाता था, किंतु सचमुच वह उसका ध्यान अपनी ओर खींचना चाहता था!…और जब पसीने से लाजवंती का हाथ नम हो गया तो उसने पिंजड़े की पकड़ को और कड़ा कर दिया, जिसमें उसकी पालू, गूंगी और धूप से परेशान मैना थी। वह अपने निश्चय के अनुसार गुड़गांव तक पैदल चलने के लिए अटल थी, जहां से उसे अपने पिता के घर पटौडी जाने के लिए बस मिलने की आशा थी।

    ‘‘मैना, मुझसे बोलो…कुछ कहो!’’

    मैना पिंजड़े में हलके से फड़फड़ाई, शायद वह लाजवंती को यह संकेत दे रही थी कि वह जिंदा है।

    ‘‘जैसे ही बस-अड्डे पर पहुंचूंगी, मैं तुम्हें पानी पिलाऊंगी।’’

    और पैरों में, जहां जूतियों के तल्ले फटे हुए थे और मांस नंगा हो गया था, छाले पड़ने के कारण वह उस अकेले आम की छाया की ओर दौड़ पड़ी, जो महरौली-गुड़गांव वाली सड़क से थोड़ी दूर पर खड़ा था।

    ठंडक में पहुंचते ही उसने कई गरम निःश्वास छोड़े, दुपट्टे के छोर से गरदन का पसीना पोंछा, फिर भूल से धूल से अटे दुपट्टे से पोंछकर अपना मुंह गंदा कर लिया और तालू को अपनी जीभ से चाटकर, मैना का पिंजड़ा नीचे रखकर वह गुड़गांव की ओर देखने लगी।

    घनी धूल-भरी लू हर चीज पर छा गई थी। किंतु आम के हरे कुंज के ऊपर से आध मील दूर वह पुरानी कारवां-सराय की बाह्याकृति देख सकती थी।

    जल्दी से उसने पिंजड़ा उठाया और आगे चल पड़ी। उसके मन में यह पूर्व-कल्पना गूंज रही थी कि जैसे ही उसकी सास को ख्याल आएगा कि दो घंटे से ज्यादा हो गए और लाजवंती कुएं से लौटकर नहीं आई, जसवंत उसका तेजी से पीछा करेगा और उसके पास बाईसिकिल है।

    गुड़गांव की सिविल लाइन के लंबे वृक्षों की ओट में झाड़ों की बाड़ों से घिरे हुए ऊंचे-ऊंचे बंगलों को देखकर उसकी आंखों की प्यास बुझ गई। पीपल की हरी पत्तियां उसकी आत्मा के लिए ठंडे शरबत की तरह थीं। और लगता था कि वहां हलवाई की दुकान भी है, जहां उसे एक गिलास मट्ठा मिल सकेगा और वह मैना को कुछ चारा और पानी दे सकेगी।

    पैदल यात्रा का अंतिम भाग हमेशा कष्टकर होता है। उसके पैर मानो घिसट रहे थे। उसके तलवों के नंगे हिस्सों पर जलन असह्य हो उठी थी। जसवंत के सम्बंध में यह पूर्वकल्पना कि अब वह उसके पीछे आ ही रहा होगा, उसके दिमाग पर छा गई थी। अब लगभग वह अपनी कारा के अंतिम द्वार पर आ गई थी। फिर भी उसने अपने को आगे बढ़ाया, जैसे उसपर भागने का भूत सवार हो।फिर कमजोरी का एक क्षण तब आया, जब मैना बिल्कुल सुन्न हो गई और उसे देखने का कष्ट किए बिना ही उसने सोचा कि चिड़िया लू के कारण मूर्च्छित होकर मर गई।

    और इस पूर्व-सूचना से भयाकांत हो उसे लगा कि अपराध की रस्सी से उसका सूखा गला कसता जा रहा है-काश, वह बेइज्जती सह लेती…वह जसवंत के हाथों अपने को समर्पित कर देती…जब उसने उसे पकड़ा था, तो वह अपनी आंखें बंद कर लेती…उसका पति बलवंत दूर कॉलेज में था। उसके दयालु ससुर को इसकी खबर भी न हो पाती। और सास, जो किसी भी चीज से अधिक नातियों की इच्छुक थी, जान जाती तो भी परेशान न होती, क्योंकि वह सदा जसवंत का ही पक्ष लेती थी, जो कि खेती कराता था, बलवंत का नहीं जो कि क्लर्क होना चाहता था।‘‘मुझसे बोलो, मैना!…मुझसे दूर मत जाओ…।यदि तुम चली जाओगी तो मैं भी मर जाऊंगी…।’’

    लेकिन जब चिड़िया ने पंख भी नहीं फड़फड़ाए तो उसका दिल डूबता-सा लगा और वह पसीने से तर-ब-तर हो गई।हो सकता है कि मैं अंधविश्वासी हो रही हूं, उसने खुद से कहा, मुझे पटौडी तक सकुशल पहुंचने के लिए हौस खास वाली सड़क के चौराहे पर टोटका कर लेना चाहिए था। तब ईश्वर जरूर मेरे दुश्मनों को मुझसे दूर रखता…

    भाग्य ने उसके आगे मौन दूरी की लंबाई फैला दी थी। अपने मन की रिक्तता के सामने उसने सारी धरती को अपने खिलाफ होते महसूस किया। जिन सारे पापों के लिए वह सजा भुगत रही थी, उनके लिए वह ईश्वर के सामने झुककर क्षमा-याचना करना चाहती थी।ओ भगवान! धीरे-धीरे मुझे सतपथ दिखाओ। वह मन में ही चीख उठी।उसी समय उसने जसवंत की अशुभ आवाज सुनी :‘‘रुक जाओ, पागल औरत, नहीं तो मैं तुम्हारी जान ले लूंगा।’’

    उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा, क्योंकि अपने जेठ के विशेष स्वर को वह जानती थी। वह उसकी पहुंच के बाहर होने के लिए हलवाई की दुकान पर आराम करते आदमियों के झुंड तक पहुंचने के लिए सहज ज्ञान से उड़ भागने की प्रेरणा पाकर दौड़ पड़ी।मैना ने पंखों को जोर से फड़फड़ाया। इस बार वह खतरा जानकर चीख उठी।‘‘रुक जा!’’ तीक्ष्ण और कानों को भेद देने वाली मृत्यु की आवाज आई।

    उलझनों के चक्कर में फंसकर लाजवंती भावनाओं के आदिम जंगल में खो गई। नरक की यातनाएं उसका इंतजार कर रही थीं। किंतु वह शायद उनसे बच सकती थी।‘‘लाजवंती!’’ जसवंत ने अबकी कोमल आवाज में उसे पुकारा।इस आवाज ने उसे विस्मित और कमजोर बना दिया और उसे अफसोस हुआ कि क्यों नहीं उसने आत्म-समर्पण कर दिया।

    वह हलवाई की दुकान की ओर लगभग बीस गज बड़ी सफाई से दौड़ गई। जसवंत उसकी बगल से साइकिल से गुजरा और उसने उतरकर साइकिल से उसका रास्ता रोक लिया।लाजवंती ने उसके विकृत, चेचक के दाग-भरे चेहरे पर उभर आई मुस्कान की भयानकता का अंदाज लगाया। वह तेजी से मुड़ी और उसे एक झटका देकर बड़ी तेजी से खाई में उतरकर किनारे-किनारे हलवाई की दुकान की ओर दौड़ पड़ी।

    उसने बाईसिकिल घसीटते हुए उसका पीछा किया।हलवाई की दुकान पर पहुंचते ही उसने बाईसिकिल छोड़ दी और बड़े वेग से उसकी ओर झपट पड़ा।लाजवंती लगभग एक राजी शिकार की तरह उसकी फैली भुजाओं में गिर पड़ी।किंतु जब वह जंगली जानवर के गर्म आलिंगन के प्रति सचेत हुई तो पीछे मुड़कर उसने अपने को मुक्त कर लिया। वह फिर दौड़ चली।वह चौंककर मुड़ा और उसे खदेड़ लिया। वह हलवाई की दुकान की बगल वाली काठ की बेंच पर बैठे-बैठे कि उसने उसका आंचल पकड़ लिया।

    ‘‘ओह, तुम क्यों भागी जा रही थी?’’ उसने पूछा, ‘‘लाज नहीं आती तुम्हें?…जरा लोगों को देखो…’’छिटकते हुए देहातियों ने लापरवाही से उस दृश्य को देखा, किसी ने नजदीक फटकने की कोशिश नहीं की। लेकिन तीन स्कूली लड़के आकर उन्हें घूरने लगे।‘‘मुझे जाने दो…मैं अपने पिता के घर जाना चाहती हूं,’’ लाजवंती ने जसवंत की ओर बिना देखे ही कहा।

    मैना पिंजड़े में फड़फड़ा उठी।‘‘नहीं, तुम्हें अपने पति घर लौटना होगा!’’ जसवंत ने शब्दों को चबाते हुए कहा और जब वह उसकी पकड़ से मुक्त होने का प्रयत्न करने लगी तो उसने लाजवंती की कलाई मरोड़ दी।‘जानवर!’’ वह चीख पड़ी और बिना आंसू के वह सिसकियां भरने लगी।‘मुझे अकेली छोड़ दे!…मुझे अपनी मैना को पानी पिलाने दो…।’’

    जसवंत की हिंसक पशुता कमजोर लाजवंती पर बढ़ गई। वह फटी आवाज में चिल्लाया, ‘‘रंडी कहीं की! छिनाल! भाग रही हो?…हमारी बिरादरी हमें क्या कहेगी? इस तरह हमारी बेइज्जती कर रही हो!’’लाजवंती एक खलबली में उसके कदमों पर भहराकर गर पड़ी।जेठ ने उसे दाहिने पैर से ठोकर मारी।इसपर हलवाई अपनी चीकट गद्दी से उठा और बोला, ‘‘ओह, मत मारो उसे। उसे समझाओ…’’

    किंतु जब औरत एक गठरी की तरह गूंगी बनी बैठी रही तो जसवंत के मन के अंदर के उलझे हुए संवेग, जो लाजवंती के साथ अपनी मनोकामना-पूर्ति में असफलता के कारण पैदा हुए थे, तीव्र क्रोध में केन्द्रित हो गए। उसने अपने दाहिने हाथ को ढीला करके लाजवंती के सिर पर एक झापड़ जड़ दिया।लाजवंती अपनी सिसकियों को दबाकर, स्वयं को यातना के लिए समर्पित करके मौन बैठी रही।और अब किसान तमाशाइयों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया, किंतु किसी ने भी पूछताछ नहीं कि।

    घूंघट से ढंकी हुई लाजवंती की आंखों की सामने रोशनी की क्षीण किरणों में एक भय की स्थिरता कांप रही थी।तभी दीनदयाल इंजीनियर की जीप के ब्रेक लगने और पहियों के घिसटने की आवाज हलवाई की दुकान से बीस गज आगे सुन पड़ी।‘जल्दी जाओ!’’ श्रीमती दयाल ने अपने पति को आज्ञा दी, ‘‘मैंने उसे औरत को पीटते हुए देखा है।’’

    ‘‘उत्तेजित होने के पहले हमें असलियत जान लेना चाहिए,’’ मितभाषी इंजीनियर ने कहा और वह हलवाई की ओर मुड़ा, ‘‘क्या हुआ? कौन हैं ये लोग?’’‘‘महाशय, लगता है, लड़की अपने ससुर के घर से भागकर अपने पिता के घर जाना चाहती…किंतु उसके जेठ ने उसे बीच में ही आ पकड़ा…’’श्रीमती दयाल कूदकर अपने पति से आगे दौड़ पड़ीं।‘‘कायर लोगो! हटो, बगल, क्या तमाशा देख रहे हो?’’

    भीड़ छंट गई और जसवंत लाजवंती के सिर का कपड़ा उसकी चोटी के साथ अपने हाथ में उमेठे हुए दिखाई दिया।‘‘इसे छोड़ दो!’’ श्रीमती दयाल ने हुक्म दिया।‘‘बहन, यह अपने पति के घर से भाग आई है,’’ जसवंत ने निवेदन किया, ‘‘हमारी इज्जत खतरे में है।’’‘‘उसके भागने का जरूर कोई कारण रहा होगा,’’ श्रीमती दयाल ने कहा, ‘‘यह कहां से आयी है?’’‘‘मेहरौली के निकट से,’’ जसवंत ने बतलाया।

    ‘‘हाय, पैदल?…चौदल मील? यह चलकर आई?’’जसवंत ने सिर हिलाया।‘बेचारी बच्ची!’’ अपने पति की ओर मुड़ते हुए श्रीमती दयाल ने कहा, ‘‘मैं इस लड़की को लू से नहीं मरने दूंगी। इसे जीप में बैठाओ, हम इसे अपने घर ले चलेंगे।’’मैं यह नहीं करने दूंगा?’’ दबे हुए किंतु हठ के स्वर में जसवंत ने कहा।‘मैं तुम्हें पुलिस में दे दूंगी!’’ श्रीमती दयाल ने धमकी दी।

    ‘‘जो हो,’’ इंजीनियर दीनदयाल ने जसवंत को धीरज धराया, ‘‘चलो, मेरे घर चलकर इस मामले में बातें कर लो, अपने साथ वापस ले जाने के लिए इसे राजी कर लो। जबरदस्ती मत करो…’’‘‘आओ हमारे साथ,’’ श्रीमती दयाल ने अक्खड़पन के साथ लाजवंती की चोटी जसवंत के हाथ से छुड़ाकर उसे उठाते हुए कहा।‘‘दो, मैना मैं लेता चलूं,’’ जसवंत ने अपनी भयहू को चिढ़ाते हुए कहा।लाजवंती ने अपने सिर हिलाया और आगे चल पड़ी।

    इंजीनियर दयाल के ठंडे बरामदे में लाजवंती अपनी कोमल और अश्रु-सिक्त आंखों से घूंघट हटाकर बोली, ‘‘मां, मैना के लिए थोड़ा पानी दो।’’‘‘गुर्खा!’’ श्रीमती दयाल ने नौकर को बुलाया, ‘‘हम सभी को ठंडा पानी पिलाओ नींबू मिलाकर और चिड़िया के लिए सादा पानी लाओ।’’सेवक गुर्खा, जो इंजीनियर से अधिक मितभाषी था, एक ही नजर में सबकुछ समझकर रसोई-घर में चला गया।

    ‘‘तुमने लड़की को पीटा क्यों?’’ श्रीमती दयाल ने कहा।‘‘हमने इससे बार-बार कहा है,’’ जसवंत ने कहा, ‘‘इसका पति बी।ए। करने के लिए सिर्फ एक साल और कॉलेज में रहेगा। किंतु यह उसी के साथ रहने के लिए जिद करती है या पिता के घर जाने को कहती है।’’‘‘मां, झूठ है यह!’’ लाजवंती चीख उठी।‘तुम लोगों ने इसे जरूर यातना दी होगी, तभी तो यह ऐसा कहती है,’’ इंजीनियर दयाल बोले।

    ‘‘महाशय, इसके साथ हमारा व्यवहार हमेशा बहुत अच्छा रहा है,’’ जसवंत ने दलील दी, ‘‘यह गरीब घर से आयी है। मेरे पिता चौधरी तेजराम पूरे गांव के सरपंच हैं! मेरी अपनी भी औरत है, लेकिन वह बहुत भली है।’’‘‘वह तो बिल्कुल गाय है!’’ लाजवंती फट पड़ी, ‘‘और तुम्हें दस बीवियां चाहिए!’’‘‘भौंको मत, बेहया! नहीं तो अभी ठीक कर दूंगा!’’ जसवंत बोला।

    यह देखकर श्रीमती दयाल मन-ही-मन किसी इरादे को लेकर उठीं, और जसवंत के चेहरे पर सीधे एक तमाचा जड़ दिया और कहा, ‘‘कहो, कैसा लगा? यदि कोई दूसरा तुम्हें इस तरह पीटे, तो?’’वह अप्रत्याशित रूप से अपना खुला मुंह लिये खामोश बैठा रह गया।

    ‘‘जब यह मेरे निकट बुरी नीयत से आया था तो मुझे भी ऐसा ही करना चाहिए था!’’ लाजवंती ने शर्म से इंजीनियर की ओर से सिर घुमाते हुए कहा।‘‘स्पष्ट है कि लड़की तुम्हारे परिवार से खुश नहीं है,’’ इंजीनियर ने कहा। ‘‘जब तक इसका पति अपनी पढ़ाई पूरा नहीं कर लेता, इसे अपने पिता के घर जाने दो। बाद में यह तुम्हारे परिवार में वापस आ जाएगी।’’‘‘बिल्कुल ठीक है!’’ श्रीमती दयाल ने जोड़ा, ‘‘मैं इस बच्ची को तुम्हारे जाल में नहीं फंसने दूंगी। तुम्हें सिर्फ एक औरत मिलेगी, दो नहीं!’’

    न्याय के नाम पर उठाये गए शोरोगुल से बने हुए पक्ष-विपक्ष के दोनों अस्थिर तराजुओं पर स्वयं को तौलती हुई लाजवंती को दो लंबे वर्षों बाद आज पहली बार शांति का एक क्षण प्राप्त हुआ। लेकिन शीघ्र ही फिर उसे थप्पड़ खाए हुए जसवंत के प्रतिशोध का ध्यान आ गया और वह सहम उठी!…उसने मैना की ओर देखकर मौन भाषा में कहा, ‘फरिश्ते, कल्पना करो कि इस दुनिया में कहीं एक ठंडी जगह है, जहां हमें भी आराम मिल सके…’

    ‘‘उसका निर्णय पूछिए,’’ जसवंत ने कहा, ‘‘यदि यह अपने पिता के घर जाएगी तो फिर हमारे यहां कभी भी नहीं आ सकती। यदि मेरे साथ वापस चले तो हम इसे इसके पिता के घर कुछ दिनों के लिए पहुंचा देने की बात सोचेंगे।’’‘‘बताओ, लड़की, क्या चाहती हो?’’ श्रीमती दयाल ने कहा।‘‘मैं अपने पिता के घर जाना चाहती हूं, इन लोगों की देहलीज पर कभी पैर भी नहीं रखना चाहती।’’ लाजवंती ने उत्तर दिया।

    ‘‘सुन लिया?’’ श्रीमती दयाल ने कहा, ‘‘इसका यह उत्तर है तुम्हारे सवाल का। यदि तुम शरीफ आदमी हो तो अपने घर वापस चले जाओ। मैं पटौडी जाने वाली बस से लड़की को भेज दूंगी।’’ और वह अपने फैसले की तसदीक के लिए पति की ओर मुड़ पड़ीं।‘‘बिल्कुल ठीक है!’’ इंजीनियर ने कहा।‘‘गुर्खा!’’ श्रीमती दयाल ने पुकारा।‘‘आया, बीबीजी!’’ नौकर ने उत्तर दिया और वह लोगों के लिए नींबू का पानी और चिड़िया के लिए सादा पानी और कुछ बीज लिये हुए प्रकट हुआ।

    अपने हाथ में मैना का पिंजड़ा लिये हुए लाजवंती जिस समय पिता के घर पहुंची, बूढ़ा भैंस को नहलाने के लिए कुएं पर जा रहा था। बूढ़े का मुंह और आंखें खुली रह गईं, वह ठिठककर खड़ा हो गया। उसकी समझ में न आ रहा था कि वह अपने सामने अपनी लड़की को देख रहा है या उसके भूत को। जब वह चरण-धूलि लेने के लिए झुकी,

    तो गरमी के कारण निकले पसीने से तर कपड़ों की तीक्ष्ण गंध पाकर उसने लाजवंती को पहचाना। वह लड़की का चेहरा देखने की भी हिम्मत न कर पा रहा था, क्योंकि बिना सगुनौती लड़की का घर वापस आना अशुभ-सूचक था। तो भी अपने सीधे स्वभाव के कारण उसने कोई प्रश्न नहीं पूछा। उसने सिर्फ अपने छोटे लड़के को बुलाया, जो भैंस के लिए चारा काट रहा था।‘‘इंदू, तुम्हारी बड़ी बहन आयी है। अपनी छोटी बहन मोती को जगा दो।’’

    लाजवंती अपने पिता के लिए दुःखी थी। वह जानती थी कि उसका पिता एक भैंस और एक एकड़ जमीन के सहारे अपनी जिंदगी का भार किसी तरह ढो रहा है। लाजवंती की मांग दो छोटे-छोटे बच्चे छोड़कर मर गई थी। पिता एक सयानी और शादीशुदा लड़की को ग्रहण करने में अशवत था। और लाजवंती तो कहावत के मुताबिक बदलने के लिए एक जोड़ा कपड़ा भी अपने साथ नहीं लाई थी।
    इंदू गड़ांसा फेंककर उसकी ओर दौर पड़ा और जैसे उसने अपनी मां का भूत दरवाजे पर देखा हो, वह लाजवंती के पैरों से लिपट गया। सचमुच लाजवंती अपनी मां की ही प्रतिरूप थी। मां अपने फेफड़ों की बीमारी के कारण काली पड़ गई थी, लेकिन लाजो का रंग पक्का सांवला था। छोटा, चिकना चेहरा, सुंदर नाक और ठुड्डी पर गोदने के कारण बहुत ही सुंदर दिखाई देता था।

    लड़के के गर्म आलिंगन से लाजवंती की आंखों से आंसू बह निकले, ‘‘रहने दो, मोती को न जगाओ,’’ उसने कहा, ‘‘जरा इस बेचारी मैना को देखा। यह नई दिल्ली से मेरे साथ आयी है।’’लड़के ने झपटकर पिंजड़ा ले लिया और चिड़िया को बुलवाने की कोशिश में लाजवंती को भूल गया।‘‘इंदू, थोड़ा पानी और खाने के लिए कुछ दाने चिड़िया को दो,’’ लाजवंती ने देहलीज पर बैठते हुए कहा, ‘‘तब शायद यह तुमसे बात करेगी, यद्यपि यह अभी बहुत नहीं बोलती…।पड़ोसी लोग सभी-कुछ जान लेंगे…’’

    अब जब वह यहां आ चुकी थी, वह चाहती थी कि उसके इस तरह चले आने की बात किसी को भी मालूम न हो। साथ ही, बेशक, वह यह भी जानती थी कि इस छोटी-सी जगह में किसी भी आदमी की कोई भी बात छिपी नहीं रहती। शादी के पहले जब वह खुलेआम हमउम्र लड़कों के साथ खेलती थी और शायद ही दुपट्टे से कभी सिर ढंकने की परवाह करती थी, तब जो लोग उसकी हंसी उड़ाते थे, उनसे अब पलायन करना व्यर्थ था।

    सयाने लोग उसे ‘पागल लाजो’ कहते थे और लड़के उसे फिल्मी अभिनेत्री मीनाकुमारी के नाम से पुकारते थे, जिससे वह काफी मिलती-जुलती थी। वह तो अपने पिता के दिल की बात जानना चाहती थी कि क्या वह उसकी रहस्यमय इच्छा और मूल प्रवृत्ति को, जो हमेशा उसे किसी-न-किसी अनोखी घटना के लिए प्रेरित करती थी, समझता है?इंदू ने पिंजड़े में एक प्याला पानी डाल दिया। और लो! मैना ने बात करना शुरू कर दिया।‘‘लाजो, यह क्या कहती है?’’ लड़के ने पूछा।

    लाजवंती तपते हुए आसमान को देखकर मुस्करा दी।कुएं से लौटने के बाद पिता ने भैंस को बांध दिया और इंदू ने जो चारा तैयार किया था, उस जानवर के आगे डाल दिया। लड़के ने पर्याप्त चारा नहीं काटा था, अतः वह गडांसा लेकर और चारा काटने लगा। किसी को डांटने की उसकी आदत नहीं थी। अपनी बड़ी बहन के आने से इंदू उत्तेजित होकर चारा काटना भूल गया। इसके लिए पिता उसे दोषी करार देना नहीं चाहता था।

    भैंस का चारा पानी कर चुकने के बाद उसने शाम के भोजन के लिए मसूर भिगोई और चूल्हा जलाने लगा।‘‘बापू, मैं यह-सब कर लूंगी,’’ लाजवंती ने कहा।‘‘बेटा, कोई बात नहीं,’ उसने उत्तर दिया और अपने काम में हठपूर्वक लगा रहा। फिर अपने लड़के की ओर मुड़ते हुए उसने कहा, ‘‘अपनी बहन के लिए चटाई दो।’’

    झुर्रीदार, शांत चेहरे के पीछे उसके भाव छिपे हुए थे, किंतु जैसे ही उसने यह बात कही, लाजवंती ने उसके होंठों पर आई विवर्णता देख ली थी, और वह समझ गई कि उसका यहां आना बापू को पसंद नहीं आया। चटाई सिर्फ मेहमानों को दी जाती है।आसमान की भयंकर आग बुझने के बहुत पहले से ही आंगन परछाइयों से भर उठा था। लाजवंती गुलाबी बादलों को देख रही थी। लगता था कि जैसे वहां कोई भीषण हत्याकांड हो गया हो।

    और अपनी ही आत्मा से डरकर उसने अपनी सांसों पर काबू पाने का प्रयत्न किया।‘‘बहन, तुम्हें नहाने के लिए घड़े में पानी लाया हूं,’’ इंदू ने कहा। लाजवंती अभी उत्तर देने को ही थी कि भाई की आवाज से मोती चौंककर ठुनकती हुई जग पड़ी। लाजवंती ने उछलकर बच्ची को आंलिगन में बांध लिया और उसे सांत्वना देने लगी।

    ‘‘लाजो, बच्चों को एक मां की जरूरत है। यदि लोग तुम्हारी ओर उंगली न उठाते तो मैं तुम्हें इस घर से दूर नहीं होने देता,’’ उसके पिता ने कहा। इतना कहकर वह रुक गया, फिर देर बाद चूल्हे की आग फूंकते हुए कहने लगा, ‘‘अब मैं ही इनके लिए मां-बाप दोनों हूं!…और जहां तक तुम्हारा प्रश्न है, तुम्हें मैं सास-ससुर के घर पहुंचा दूंगा। मैं उनके पैरों पर गिरकर तुम्हारे लिए क्षमा मांग लूंगा। बिना विधवा हुए तुम्हारे विधवेपन की यह बेइज्जती मेरे लिए असह्य हो रही है। यहां लोग तुम्हें सिर्फ गाली देंगे!…

    दो दिन बाद हरीराम, लाजवंती के पिता, के नाम एक पोस्टकार्ड आया। जसवंत ने अपने पिता की ओर से लिखा था कि, क्योंकि लाजवंती भागकर गई है, उसने सास-ससुर या पति किसी की भी अनुमति नहीं ली है, इसलिए शादी के उसके वस्त्र वापस किए जा रहे हैं और दिल्ली में अब कोई भी उसका ‘काला चेहरा’ नहीं देखना चाहेगा…।

    हरीराम पहले से ही किसी आदमी को भैंस और बच्चों की देख-रेख के लिए खोज रहा था कि वह लाजवंती को उसकी ससुराल पहुंचा सके। उसने उस दाई को बुला भेजा था। उसने उसके सारे बच्चों को जन्माया था। वह पटौडी खास में रहती थी। इस छोटे गांव में कोई भी ऐसा न था जो बिना मुआवजा लिये उसके साथ यह कृपा करता। भाग्यवश दाई चम्पा जिस दिन कार्ड आया था उसी दिन आ गई। वह घर की देख-रेख के लिए तैयार थी।

    ‘‘क्यों?’’ उसने कहा, ‘‘मुझे तो लाजो की भरी हुई गोद देखने की आशा थी। मैं उस दिन के इंतजार में थी जब मैं बुलाई जाऊंगी और आकर इसके बेटे को जन्माऊंगी और इस समय, मेरी प्यारी बच्ची, तुम यहां हो, लेकिन किसी सुखदायक घटना का तुम्हारी आंखों में कोई चिह्न ही नहीं है!…तुम अपनी मां की प्यारी आत्मा के लिए जल्दी वापस जाओ और जल्दी ही भरी गोद लेकर आओ।’’ ‘‘मैं अपनी पगड़ी तुम्हारे पांवों पर रखता हूं!’’ हरीराम ने चौधरी तेजराम से कहा। और अक्षरशः सिर से पगड़ी उतारकर लड़की के ससुर के जूते पर रख दी। ‘‘ओह आओ, मेरे पास बैठो,’’ नीम की छाया में बैठे, हुक्का पीते हुए, बाएं हाथ से बिस्तर साफ करते हुए चौधरी तेजराम ने कहा।

    लाजवंती थोड़ी दूर पर झुकी हुई खड़ी थी। उसका चेहरा घूंघट से ढंका था। वह अपनी दृष्टि ससुर की ओर से हटाकर तपते मैदानों की ओर देख रही थी। उसका कलेजा मुंह को आ रहा था। हो सकता है कि उसका जेठ जसवंत भुसौली से अचानक निकल आए, या उसकी सास ही ससुर के क्षमा करने के पहले आ जाए। साथ ही उसे यह भी मालूम हुआ कि उसे क्षमा नहीं मिलेगी, हां, अनिच्छापूर्वक सिर हिलाकर भले ही ससुर उसे यहां ठहरने की इजाजत दे दें।

    लेकिन इस संकेत में अभी देर थी, क्योंकि चौधरी तेजराम मौन थे। हरीराम पास में बैठ गया, तो वह हुक्का गुड़-गुड़ाने लगे।

    इस बीच लाजवंती ने सिर पर कपड़े के नीचे पसीना एकत्रित होते हुए अनुभव किया, जो कि रीढ़ की हड्डी से नीचे की ओर बह रहा था। और उसने पिंजड़े में अपनी प्यारी मैना को देखा कि कहीं वह मर तो नहीं गई। यात्रा इस बार आरामदेह रही थी। पटौडी से गुड़गांव तक वे बस से आये थे, फिर वे गुड़गांव से बस से वहां तक आये थे, जहां से उसके ससुर का गांव आध मील दूर था। मैना को शांत बैठे देखकर इशारे से उसने कहा, मेरी मैना, बताओ, अब क्या होगा? जैसे तुम पास आती हुई बिल्ली देखकर डर से फड़फड़ा उठती हो, उसी तरह इस समय मेरा दिल भी धड़क रहा है।

    मैं नहीं जानती कि जसवंत ने अपना इरादा बदल दिया है और वह मेरा पीछा अब नहीं करेगा। चूंकि मेरे बापू मुझे वापस लाए हैं, इसलिए अब मैं अपने को समर्पित कर दूंगी। अब मेरा पतन पूरा हो जाएगा। ओह, काश, मैंने पहले ही उसकी हविस पूरी कर दी होती और अपने पति के बारे में न सोचती, जो कभी भी यह-सब न जान पाता…अब तो मैं बिलकुल हार गई। और अब शब्दों का कोई मतलब नहीं है और तिसपर भी मेरे अंतर में इच्छा और जीवन है, भावनाओं की नदी बह रही है- अंतःसलिला सरस्वती की तरह, जो धरती के नीचे-नीचे बहती है…।मैं कैसे उन भावनाओं को वश में करूं, उन कैदियों को, जो फूटकर बाहर आना चाहती हैं…

    उसने वस्तु-स्थिति समझने के लिए आंखें खोलीं। स्वप्न सच था।अनिच्छा से उसकी आंखें बंद हो गई और ओढ़नी की तह में वह एक आह दबाकर रह गई। उसके सिर में छाये अंधकार से चिनगारियां निकलकर सितारों की तरह छिटक गईं और घबराहट के कारण ढेर-सा पसीना उसके शरीर से निकल आया। वह जानती थी कि आसमान के ग्रह उसके लिए शुभ नहीं हैं।

    ‘‘अच्छा तो मुर्दा वापस आया है!’’ बूढ़ी सास की आवाज आई, जो कुएं से एक घड़ा सिर पर और दूसरा बाएं हाथ में लिये वापस आई थी। लाजवंती की अनुपस्थिति में बूढ़ी को बाध्य होकर यह सब करना पड़ रहा था। उसकी तेज सांस कोसनों से भर उठी थी।‘‘यह तुम्हारी लड़की है,’’ हरीराम ने औरत को खुश करने के लिए कहा। अपने भोलेपन में उसने सोचा था कि जैसा होता है, उसकी सास ही लड़की के पलायन का कारण बनी होगी, ‘‘मैं इसे वापस लाया हूं…दाई चम्पा ने कहा कि लड़की ने गलती की है…’’

    ‘‘सच मानो,’’ सास ने उत्तर दिया, ‘‘ऐसी कोई बात ही नहीं उठती, लेकिन बलवंत कॉलेज से छुट्टियों में चंद दिनों के लिए ही आ पाता है…और यह अपनी भूरी-भूरी आंखों का जादू किसी और पर चलाना चाहती है। जसवंत कहता है कि यह सड़क से आने-जाने वाले यात्रियों से आंख लड़ाती है, उसने अपनी आंखों से देखा है।’’‘‘हम इज्जतदार आदमी हैं,’’ चौधरी तेजराम ने अपनी औरत के कथन की पुष्टि की।

    ‘‘मैं…क्या कहूं, चौधरीजी,’’ हरीराम ने दीनतापूर्वक उत्तर दिया, ‘‘शायद इसकी किस्मत ही खराब है…किंतु अब मैं इसे वापस ले आया हूं। अब से यदि यह दूसरों की ओर देखे तो आप इसे मार डाल सकते हैं…मैं अधिक दहेज नहीं दे सका था, सो, मेरे लड़के बलवंत के लिए यह अंगूठी है। लड़के ने जो-कुछ नहीं पाया था, मैं अब उसके लिए थोड़ा-बहुत प्रबंध करूंगा…’’

    अपनी किस्मत का गिला सुनकर लाजवंती के अंदर से सच्चाई फूट पड़ने को मचल उठी। वह जरा हिली और उस भयंकर सत्य को उगल देने को हो उठी। ससुराल वालों के सामने झुककर अपने को इस तरह मिटाते हुए पिता पर उसे गुस्सा हो आया। किंतु अंतड़ियों के कम्पनों से उसका गला रुद्ध हो गया और गुस्से के बवंडर ने उसके दिमाग को धुंधलकों से ढंक दिया। ‘‘जसवंत! जसवंत!’’ इधर आओ!’’ सास ने अपने जेठे लड़के को बुलाया। वह दुष्ट खेत में घूमकर खड़ा हुआ और सामने देखने के लिए हथेलियों को उठाया। यह समझ गया और घर की ओर चल पड़ा।

    कयामत की-सी नीरवता में लाजवंती कांप उठी, मानो नरक के पिशाचों ने उसकी देह पर बिच्छुओं और सांपों की वर्षा की हो। फिर विक्षिप्तता की एक लहर में उसने ऐसा महसूस किया कि जैसे उसने पातालपुरी में फिर से जन्म लिया है और अपने बहादुर पति की बांहों में लिपटी हुई सेज पड़ी है…सचमुच कांपती मांस-पेशियों के नीचे उसे बलवंत को एक कायर के रूप में देखा,

    जो अपने बड़े भाई की ओर सिर उठाकर देखने का भी साहस नहीं करता। ‘‘यह वापस आ गई?’’ जसवंत ने दांत पीसते हुए कहा और रसोई-घर के दरवाजे पर मूलियों को जमीन पर फेंक दिया।‘‘यह तुमसे नहीं कह सकती, यह दाई से मिलना चाहती थी,’’ बूढ़े हरीराम ने कहा, ‘‘लेकिन वह बात गलत थी, यह खामखाह के लिए घबरा गई थी।’’

    ‘‘यहां भी दाइयां हैं!’’ जसवंत ने स्पष्ट उत्तर दिया, ‘‘यहां सफदरजंग का अस्पताल ही है! इसकी कहानी पर मत जाइए। चाचा, यह शादी के पहले ही कितनों को देख चुकी थी, यह बदमाश लड़की है!…मुझे याद है, किस तरह इसने मुझे बेइज्जत किया था, जब मैं इसे वापस लेने गया था। वहां बैठकर इसने मुझसे जबान लड़ाई थी और उस अफसर की बीवी से इसने मुझे तमाचे दिलवाए थे। रंडी!…’’

    ‘‘बस-बस, बेटा!’’ चौधरी तेजराम लड़के को रोकते हुए बोले।‘‘मुझे पिटवाने का मजा देखा!’’ जसवंत ने कहा और पीछे से लाजवंती को एक ठोकर लगाई।‘‘जसवंत!’’ उसकी मां चिल्लाई। लाजवंती कांपकर दुहरी हो गई, सिसकने के पहले वह एक कर्णभेदी आवाज में चीख पड़ी। ‘‘तुम्हें जूते की मार चाहिए!’’ जसवंत एक गिद्ध की तरह लड़की पर मंडराते हुए चिल्लाया, उसकी भुजाएं तनी हुई थीं, जैसे वह फिर उसे पीटने जा रहा हो।‘‘दूर हटो!’’ उसका पिता चिल्लाया।

    ‘‘यदि यह इसे दोषी समझता है तो इसे दंड देने दो,’’ हरीराम ने कहा, ‘‘इसे उसके पैरों पर गिरने दो…मेरी लड़की पवित्र है…’’ इतना कहते हुए उसने अपनी कायरता की पश्चातापजनक पीड़ा महसूस की और उसके गले को सूखी खांसी के आवे ने जकड़ लिया, आंखों में पानी भर गया।

    मैना, मेरी मैना! लाजवंती ने अपनी सांसों में पुकारा, मैं इसे नहीं सह सकती!…‘‘धोखेबाज! मक्कार! चुड़ैल!!’’ कहकर जसवंत उसके पिता की ओर मुड़ा, ‘‘इसे यहां से ले जाइए! इसकी यहां कोई जरूरत नहीं है! सारी बिरादरी के सामने इसने हमारी बेइज्जती की है!’’‘‘इतना गुस्सा नहीं होते, बेटा,’’ चौधरी तेजराम ने कहा, ‘‘तुम इसे काफी सजा दे चुके!’’

    ‘‘आप-जैसी बुद्धि भगवान् सबको दे,’’ हरीराम ने कहा, ‘‘मैं जानता था कि आप दया दिखाएंगे!…अब मैं आपकी शरण में इसे छोड़े जाता हूं। यदि चाहें तो आप इसे मार भी सकते हैं। किंतु जब तक बच्चे से इसकी गोद न भर जाए, इसे मेरे पास न भेजें। यदि यह इस तरह दुबारा आएगी तो मैं वह बेइज्जती सहने के लिए जिंदा न रहूंगा!…’’

    ‘‘मैना, मेरी मैना, हमेशा के लिए मैं चली जाऊंगी तो कौन तुमसे बातें करेगा?’’ लाजवंती ने बालटी से चुल्लू-भर पानी लेकर पिंजड़े की मैना को नहलाते हुए पूछा।मैना पानी की छींटों से बचकर दूर फुदक गई।‘‘मेरी नन्हीं, यदि तुम्हें पानी में डूबा दूं तो तुम चीखोगी?’’ लाजवंती ने पूछा।उत्तर में मानो चिड़िया किनारे चली गई।उसके चकराते दिमाग के चारों ओर जो जल की लहरें उठ रही थीं, उनसे दूर अब वह कुएं की जगत पर बैठी हुई थी।

    यदि वह सोचना बंद कर दे, उसने महसूस किया, तो वह फिर इसे कभी भी नहीं कर पाएगी…अभी नहीं तो फिर कभी नहीं। कुएं पर इस समय उसके और मैना के सिवा कोई नहीं था। गांव की औरतें शाम के लिए पानी ले चुकी थीं। जल्दी ही अंधेरा हो जाएगा। जहां वह बैठी थी, वहां से जरा-सा झुकने से ही काम बन सकता था। मां! ओ मां! वह अपने अंतर में पुकार उठी, बापू!…

    लेकिन नहीं। अब अधिक इंतजार नहीं। और उसने अपने घड़े को एक झटका देते हुए अपने अनिश्चय से घबराकर जबरन अपने को आगे उचका दिया। वह बड़ी बुरी तरह से कुएं में गिरी। उसका बायां कंधा बगल के पत्थर से टकरा गया था और वह कुएं में किनारे की ओर गिरी थी। एक क्षण के लिए वह ठमक गई।

    ऊपर से गिरने के कारण वह पहले पानी में पूरी गहराई तक चली गई थी। किंतु दूसरे ही क्षण उसने जोर से अपने शरीर को ऊपर उठते हुए पाया। दुर्भायवश वह तैरना भी जानती थी। वह अपनी सांसों को छोड़ने का निश्चय नहीं कर सकी। और उसका सिर झटके से पानी के ऊपर आ गया। वह अब पानी पर बहती हुई तैर रही थी।अब भी मौका था।

    धड़ तक ऊपर आकर वह फिर नीचे डूबी और उंगलियों से उसने अपनी नाक दबा ली। वह कुछ क्षण तक पानी के नीचे दबी रही, फिर दबी नाक को हाथों से छोड़ते हुए उसने अपने को डुबाने का प्रयत्न किया। लेकिन सांस लेने के लिए उसका सिर पानी से ऊपर आ गया…।‘‘लाजवंती! लाजवंती! …बदमाश! …बाहर आओ!’’ उसकी सास की कांपती हुई आवाज आई, ‘‘भले लोगों का यह रास्ता नहीं है…’’

    पानी में कोई दरार नहीं थी, जहां वह अपने सर को घुसेड़ सकती। यह बूढ़ी औरत कैसे आ गई? वह अकेली रहती तो दूसरे या तीसरे प्रयत्न में अवश्य ही कुएं के पर्दे में बैठ गई होती…।उस अंधेरे में भी अब पलायन का कोई रास्ता नहीं था…और कुएं के बाहर का जीवन पहले से भी कहीं अधिक नारकीय हो जाएगा!… धीरे से वह फिर पानी में डूब गई। उसकी नाक और मुंह से पानी भरने लगा और वह डूब गई।अभी वह पूर्ण रूप से अचेत नहीं होने पाई थी कि उसने अपने को कुएं के पास नीचे कीचड़ में लेटे पाया।

    कोई उसके ऊपर बैठा उसका पेट दबा रहा था। उसके मुंह और नाक के छेदों से पानी की टोंटी बह रही थी। हवा की बासी गंध उसके तालू पर यूं लगती थी, मानो जीवन स्वयं सांस बनकर पहुंच गया हो। और वह अपनी भारी पलकों के नीचे जैसे घुली जा रही थी, उसकी सांसों की कड़वाहट जैसे कम होती जा रही थी और नींद से उसकी आंखें ऐसी लग रही थीं, जैसे वह एकटक देख रही हो।और तिसपर भी एक क्षण में उसकी नाक और मुंह से ढेर-सा पानी बाहर निकल आया।

    अब अपने भीतर वह अपने मूर्ख और दुखी हृदय को चूर-चूर होते सुन सकती थी।और तब उकसी अलस पलकें खुलीं और अब वह अपनी बगल में रखे पिंजड़े में मैना को देख सकती थी।अफसोस! दिल की धड़कन और सिर-दर्द की हदों को पार करते हुए उसने मौन भाषा में कहा, मेरे लिए कोई रास्ता नहीं है…मैं…मैं जीवित रहने के लिए विवश हूं!…

    FAQs

    Q. यह सभी कहानी किन दो भाषाओं में दी गई है?
    Ans: ये सभी कहानियां हिंदी और अंग्रेजी में दी गई हैं।

    Q. इन कहानियों से हमें क्या शिक्षा मिलती है?
    Ans: इन कहानियों से हम उचित ज्ञान और सही मार्ग की पहचान कर सकते हैं।

    निष्कर्ष

    बच्चो के लिए Short Stories In Hindi By Famous Authors बहुत ही मजेदार होती है. यदि आप इस Short Stories In Hindi By Famous Authors कहानी को अपने बच्चो को सुनाते है तो वे बहुत ही खुस हो जाते है. इसके साथ ही उनको बहुत कुछ सीखने को भी मिल जाता है.

    हमे उम्मीद है की यह Short Stories In Hindi By Famous Authors पसंद आई होगी. यदि ये Moral Kahaniyaa से आपको कुछ सिखने को मिला है या यह Short Stories In Hindi By Famous Authors उपयोगी है तो इसे सोशल मीडिया में शेयर जरुर करे.

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    लेखक के बारे में

    सूरज बढ़ई

    लिक्स्कार्ट डॉट कॉम में सीनियर डिजिटल कंटेंट प्रोड्यूसर और संस्थापक हैं। खुद की ब्लॉग से करियर की शुरुआत हुई।

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